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अहिंसा का सर्वांगीण स्वरूप
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जीवों का समान अधिकार है । पर आप खड़े भी होते हैं। सोते भी हैं, बैठते हैं, चलते-फिरते भी हैं । सफाई भी करते हैं । फिर प्रश्न है कि अहिंसा का पालन किस प्रकार हो ? क्या इस देह को हम छोड़ दें । प्रस्तुत देह के कारण ही तो अनेक खुराफातें होती हैं। शरीर के लिए ही तो असनवसन - परिजन हैं । यदि शरीर नहीं है तो न कोई रिश्तेदारी है और न किसी प्रकार की खटपट ही है । सारे पाप का केन्द्र यह शरीर है ।
श्रमण भगवान महावीर के समक्ष इस प्रकार के अनेक प्रश्न आये थे । पाप से मुक्त होने के लिए देह का परित्याग करना आवश्यक है या अन्य कोई उपाय है ?
भगवान महावीर ने उन प्रश्नों का समाधान देते हुए कहा ---मरने से या देह छोड़ने से प्राणी पाप या हिंसा से मुक्त नहीं हो सकता । जीवन में चारों ओर पाप ही पाप छाया हुआ है । उस पाप से शीघ्रातिशीघ्र मुक्त होने के लिए शरीर पर अधिकाधिक अत्याचार किये जाएँ । उस शरीर को गला दिया जाये, सड़ा दिया जाये, नष्ट कर दिया जाये । पर यह चिन्तन पाप से मुक्त होने का नहीं ? कल्पना कीजिए किसी व्यक्ति ने जबरन वर्तमान देह को छोड़ दिया । पर अगले जन्म में भी तो उसे देह प्राप्त होगा ही । अगले देह में पूर्व के संस्कारों को ले करके ही वह प्रवेश करेगा । वहाँ पर भी वही पाप का भूत सामने नजर आएगा । पाप के भूत से पिण्ड छुड़ाने का यह उपाय सही नहीं है । आत्महत्या करने से पाप के भूत से मुक्ति नहीं मिलती । उसने अहिंसा के मार्ग को छोड़कर हिंसा के मार्ग को अपनाया है । पाप से मुक्त होने का यही उपाय होता तो हर व्यक्ति इस आसान उपाय से जन्ममरण के चक्कर से मुक्त हो जाता । पर यह चिन्तन गलत है । अहिंसा की आराधना के लिए देह की आवश्यकता है । हिंसादि पापों से मुक्त होने के लिए देह त्याग करना आवश्यक नहीं है ।
इतिहास के पृष्ठ साक्षी हैं कि श्रमण भगवान महावीर के युग में कितने ही साधक जल समाधि लेते थे । कितने ही साधक हिमालय में जाकर गल जाते थे । कितने ही साधक पहाड़ की ऊँची चोटी से छलांग लगाकर झम्पापात करके अपने शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके प्राणोत्सर्ग कर देते थे । कितने ही लोग चिताएँ सुलगाकर उस दहकती चिता में अपने शरीर को भून देते थे । कितने ही लोग ऐसे भी थे जो जीवित समाधि लेते थे । कितने ही लोग शरीर का अंग भंग कर लेते थे । पञ्चाग्नि तपकर या जल में खड़े
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