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१६२ तमसो मा ज्योतिर्गमय
वाक्य पढ़कर वह चिन्तन करने लगी । शैतान कौन होता है ? नफरत क्या चीज है ? दुश्मन क्या है ? मैंने तो आज दिन तक न शैतान देखा है और न दुश्मन । ये वाक्य गलत हैं । अतः उसने उन दोनों वाक्यों को काट दिया ।
कुछ दिनों के पश्चात वे ही महात्मा यात्रा कर पुनः लोटे । राबैया ने वह ग्रन्थ उन्हें समर्पित कर दिया । उस महात्मा ने उस ग्रन्थ के पृष्ठों को इधर से उधर पलटा । उन्होंने राबैया से पूछा- आपने इन दो वाक्यों को क्यों काटा है ? राबैया ने कहा- मेरे हृदय में प्रेम का अपार सागर लहलहा रहा है । इसमें कहीं पर भी न तो नफरत है और न कहीं शैतान है । मैं किसी को दुश्मन और शैतान नहीं समझती । शैतान और दुश्मन तो संकीर्ण हृदय के द्योतक हैं ।
की अहिंसा वृत्ति को और उदात्त भावना को निहारकर वह महात्मा श्रद्धा से नत हो गया । उसे अपनी भूल ज्ञात हुई । जिसकी वृति अहिंसा आसन जमा लेती है उसके हृदय में द्वेष नहीं होता । अपितु उसके हृदय में प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता । विशुद्ध प्रेम अहिंसा का स्थायी और शाश्वत रूप है ।
अहिंसा का पालन अव्यवहार्य नहीं ?
कितने ही चिन्तकों का यह मन्तव्य है - जब तक शरीर है; तब तक अहिंसा का पालन किस प्रकार सम्भव है ? वर्तमान युग में माइक्रोस्कोप जैसे यन्त्र निर्मित हो चुके हैं। जिसके द्वारा बारीक से बारीक जीव जन्तु निहारे जा सकते हैं । जैन आगमों में पहले से ही प्रतिपादित है कि जल में, स्थल में, हवा में, अग्नि में और वनस्पति में सर्वत्र असंख्य जीव हैं । प्रस्तुत लोक में चारों ओर सर्वत्र काजल की कुप्पी की तरह जीव ठसाठस भरे हैं । ऐसी स्थिति में कोई भी साधक अहिंसा का पालन किस प्रकार कर सकता है ? जैन धर्म की सूक्ष्म अहिंसा - विश्लेषण को पढ़कर या सुनकर उस पर आक्षेप लगाया है । जल में सर्वत्र जीव ही जीव हैं । स्थल में भी जीव हैं । पर्वत में भी जीव हैं । सारा लोक जीवों से संकुल है । तब भिक्षुक अहिंसक कैसे रह सकता है ?
"जले जीवाः स्थले जीवाः, जीवा पर्वतमस्तके | जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः ?"
आत्मौपम्य दृष्टि से यह मानना होगा कि सभी स्थानों पर सभी
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