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अहिंसा का सवागीण स्वरूप १६१ अहिंसा केवल बाह्य विधि-निषेधों या प्रवृत्ति-निवृत्ति के आधार पर जमी हुई है, उसे जरा-सा विरोधी वातावरण का झौंका भी उखाड़ सकता है । जनजीवन में उसकी जड़ें गहरो नहीं होती। वृत्ति में अहिंसा ही शाश्वत व स्थिर
जिस व्यक्ति की वृत्ति में अहिंसा होगी, यानी जिसके जीवन में अहिंसा की भावना जड़ जमा चुकी होगी, वह किसी के द्वारा धर्म, जाति, भाषा, प्रान्त, राष्ट्र, कुल, लिंग, रंग आदि के नाम पर भड़काने, धर्म के नाम पर या देवी-देवों के नाम पर बहकाने या प्रलोभन देने से कभी हिंसा के लिए तैयार नहीं होगा । वह किसी भी प्राणी का वध नहीं कर सकता, न कष्ट दे सकता है, न ही सता सकता है। तात्पर्य यह है कि वृत्ति से अहिंसक होने पर व्यक्ति में हिंसा की योग्यता या भावना ही समाप्त हो जाती है। न वह मरणोत्तर स्वर्ग के लिए, न जीवन की सूख-समृद्धि या सामाजिक सम्मान-प्रतिष्ठा के लिए किसी भी प्रकार की हिंसा कर सकता है । वृत्ति में अहिंसा जब जड़ जमा लेती है तो अहिंसक की इतनी सहज अवस्था हो जाती है कि वह हिंसा कर ही नहीं सकता, न हिंसा के लिए किसी को कह सकता है, और न ही मन से किसी की हिंसा का संकल्प कर सकता है । भले ही उसके लिए उसे अपने प्राणों की बाजी लगानी पड़े।
उसके जीवन में अहिंसा का स्वर सर्वत्र झंकृत होता है। अहिंसा के लिए उसे कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। वह उसके लिए सहज और स्वाभाविक हो जाती है। उसका यह सिद्धान्त नहीं होता कि मुझे केवल अपने दुश्मन से ही प्यार करना है, बल्कि उसका कोई दुश्मन होता ही नहीं। राबैया ने अहिंसा को अपने जीवन में रमा लिया था। वह सारे संसार को प्रेममय दृष्टि से ही निहारती थी। उसके हृदय के कण कण में मन के अणु-अणु में प्रेम सहज रूप से समा गया था। एक बार राबैया की झोंपड़ी पर एक महात्मा आये जिनकी ख्याति एक पहुँचे हुए महात्मा के रूप में फैली हुई थी। उन्होंने अपने झोली में से एक ग्रन्थ निकाला और राबैया को देते हुए कहा- यह एक पवित्र धर्म ग्रन्थ है। इसे तुम पढ़ना । मैं पुनः यात्रा से लौटकर जब आऊँगा तब तुम्हारे से यह ग्रन्थ पुनः ले लूंगा।
राबैया धर्म ग्रन्थ को पढ़ने लगी। पढ़ते-पढ़ते उसकी दृष्टि एक स्थान पर अवस्थित हो गई । उस ग्रन्थ में लिखा था कि शैतानों से नफरत नहीं करनी चाहिए और दुश्मनों के प्रति भी प्रेम करना चाहिए। यह
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