SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६० तमसो मा ज्योतिर्गमय आदि के भेद भुला दो । वस्तुतः अहिंसा मानव जाति को हिंसा से मुक्त करती है । वैर, वैमनस्य, द्वष, कलह, घृणा, ईर्ष्या, दुःसंकल्प, क्रोध, अहंकार, दम्भ, लोभ, दमन आदि जितनी व्यक्ति और समाज की ध्वंसमूलक वृत्तियाँ हैं वे सब की सब हिसा को ही प्रतिमूति हैं। अहिंसा का सीधा सम्बन्ध वृत्ति के साथ इसलिए अहिसा का सीधा सम्बन्ध मनुष्य के मस्तिष्क के साथ नहीं है, हृदय के साथ है, बल्कि अन्तर्जीवन के साथ है, अन्तर् की गहरी आध्यात्मिक अनुभूति के साथ है । मानव मन की मूल पवित्र वृत्ति के साथ ही सारे अध्यात्मदर्शन अहिंसा को सम्बद्ध करते हैं। यही अहिंसा का बीज है। इसी की सुरक्षा की चिन्ता सभी क्रान्तद्रष्टा श्रमण करते हैं, इधरउधर विधि-निषेधरूप फल, पुष्प एवं शाखाओं की नहीं । बाह्य व्यवहार के आधार पर बने हुए अहिसा के विधि-निषेधरूप विधान, देश, काल, पात्र और परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं । परन्तु अहिंसा का मूल बीज स्थायी रहता है। अतः अहिंसा के आधार पर मनुष्य-समाज को चलाने के लिए हमें बाह्य व्यवहारों के आधार पर खड़े किये हुए विधि-निषेधों को गौण समझकर तथा निवृत्ति-प्रवृत्ति के प्रचलित व्यामोह के एकान्त आग्रह को भी क्षीण करना होगा। भय और प्रलोभन पर आधारित अहिंसा स्थिर नहीं । भय एक प्रकार की हिंसा है । इसी प्रकार धर्म के नाम पर कई धर्म के टेकेदार अपने अनुयायियों को उत्तेजित करते प्रतीत होते हैं, 'धर्म खतरे में हैं, मर-मिटो, विधर्मियों को मारना गुनाह नहीं है, इससे स्वर्ग मिलेगा। अपने दुश्मनों को समाप्त कर दो, युद्ध में मरने वालों को स्वर्ग में देवांगनाएँ मिलती हैं । यज्ञ में पशुओं को होमने से देव प्रसन्न होते हैं, वे तुम्हें सुख समृद्धि देंगे ।' ये प्रलोभन भी लोभ, द्वेष, स्वार्थ और मोह से प्रेरित होने के कारण हिंसाजनक हैं । ऐसे प्रलोभनों ने ही हजारों मनुष्यों को क्रूर बना दिया है । ऐसे स्थूल दृष्टि लोगों ने हृदय में दबी हुई वृत्तिजनित हिंसा को छुड़ाने पर ध्यान नहीं दिया, पहले भय बताकर हिंसा का त्याग कराया, किन्तु ज्यों ही उपर्युक्त प्रलोभन बताया कि भय की जगह प्रलोभन ने ले ली। और उसने फिर हिंसा के लिए उकसा दिया। अगर अन्तर्मन की वृत्ति में अहिंसा जाग जाती तो दुनिया का कोई भी भय या प्रलोभन हिंसा के लिए उस मनुष्य को बाध्य नहीं कर सकता। कारण यह है कि जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy