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________________ अहिंसा का सर्वांगीण स्वरूप १५६ द्वेष, स्वार्थ-मोह, अहंकार और क्रोध, कपट और लोभ से रहित वृत्ति को ही बताया । वे अहिंसा के साधक को बाहर के स्थूल जगत् से भीतर की ओर ले गए और बताया-यह है तुम्हारा हिंसा का उत्पत्ति स्थान, यहीं से राग-द्वषादि उत्पन्न होते हैं, इसे ही नियंत्रण कक्ष बनाओ। क्रोध को उपशम (शान्ति) से जीतो, अहंकार को मदुता-नम्रता से जीतो, छलकपट को सरलता से समाप्त करो, लोभ को संतोष से परास्त करो, घृणा को प्रेम से पिघाल दो, वैर को अवैर (क्षमा) से पछाड़ो, तृष्णा का मुकाबला समता से करो, मोह का सामना भी समत्व से करो। इस तरह जब आत्मा अपने स्वभाव में स्थिर हो जाएगी, अपने को जांचेगी-परखेगी और तभी अहिंसा के सम्यक् मार्ग पर आरुढ़ होगी। यह अहिंसा या अन्तरंग हिंसा ? भ. महावीर ने अहिंसा की साधना के लिए एक बात और बताई कि मनुष्य वस्तुओं-राज्य, धन, जमीन जायदाद, शरीर, वस्त्र, मकान आदि के मोह, ममत्व और लोभ में डूब कर जब उन्हें अपने कब्जे में करने, हथियाने या छीनने-झपटने की कोशिश करता है, तब बाहर से अहिंसा का आवरण ओढ़ लेता है, किसी पर शस्त्रास्त्र नहीं चलाता, न मारपीट करता है, किन्तु अंदर ही अंदर मोह, ममत्व एवं लोभ आदि के हथियारों से हिंसा करता रहता है । इसी हिंसा वृत्ति का त्याग करने के लिए उसे जीवनयापन के लिए आवश्यक वस्तुएँ रख कर मोह ममत्व आदि से दूर होकर निलिप्त. अनासक्त रहने की साधना करनी होगी । मनुष्य के जीवन की तर्ज अहिंसा है तो उसे अहिंसा की साधना के लिए निर्लिप्तता का अभ्यास करना होगा। __भगवान महावीर ने अहिंसा के मार्ग में एक क्रान्ति और की। उन्होंने बताया-जाति, देश, भाषा, प्रान्त, लिंग, रंग, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत आदि का अहंकार भी तोड़ना होगा, क्योंकि ये अहंकार जब तक रहेंगे, तब तक 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' या आत्मौपम्य की वृत्ति नहीं आएगी । अहंकार अपने आप में हिंसा है । अतः अहिंसा की साधना के लिए आत्मौपम्य वृत्ति अपनाना और अहंकारों का छेदन करना जरूरी है। भगवान महावीर ने अहिंसा को सम्प्रदाय पंथ आदि के चौखटों और घेरों से निकाल कर मनुष्य का असली धर्म-आत्म-धर्म-मानव मात्र के हाथों में थमाया और कहा--. 'भप्पसमं मन्निज्ज छप्पिकाए' अपनी आत्मा के समान सबको मानो । आत्मा को पहचानो, सबमें अपनी आत्मा को देखो, जाति, रंग, कुल, स्त्री-पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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