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१५८ तमसो मा ज्योतिर्गमय
हत्या, लाठी, गोली, बंदूक, तलवार आदि शस्त्रों से नहीं करते, न निर्दोष वन्य पशुओं का शिकार करते हैं, न कीट पतंगे मारते हैं, और न ही पशुबलि देवी देवों के नाम पर करते हैं, क्या हम अहिंसा का पालन नहीं करते ?
हमें एक जगह एक धर्मात्मा गृहस्थ मिले, जो जीवदया के बड़े हिमायती थे । बकरों को अमरिया करवाते थे । वे प्रतिदिन कबूतरों के लिए जुआर के दाने और चींटियों के दरों में आटा डालते थे । अभक्ष्य खानपान से बहुत परहेज करते थे । उनकी दृष्टि में अहिंसा का अर्थ था - शुद्ध आहार, खाद्याखाद्य विवेक, जीवदया और पानी छान कर पीने का विवेक । मैंने सोचा, बहुत सोचा - - मान लो, भविष्य में, विश्व की जनसंख्या बढ़ जाएगी और जमीन के साथ उसका तालमेल बिठाना होगा, तब यह विचार करना होगा कि एक पूर्ण मांसाहारी के लिए ४ एकड़ जमीन चाहिए, जबकि एक पूर्ण शाकाहारी के लिए सिर्फ एक एकड़ जमीन ही पर्याप्त है । ऐसी दशा में बरबस ही मानव जाति को मांसाहार छोड़ना होगा । उस समय क्या हम उन सभी मांसाहार त्यागियों को अहिंसाधर्मी मान लेंगे ? क्या अहिंसा इतने में ही समा जाएगी ?
यही कारण है कि भगवान महावीर ने तथा बाद के आचार्यों ने अहिंसा को केवल बाह्य आचार या अमुक विधि-निषेध की परिधि में नहीं बांधा। उन्होंने अहिंसा का हार्द, अहिंसा का आन्तरिक रूप बता दिया । और अहिंसा के उस अन्तरंग सूत्र को पकड़ा कर वे निश्चिन्त हो गए कि भीतर से अहिंसा उगेगी यानी 'रागद्वेष कषायादि परिणाम नहीं उत्पन्न होंगे तो बाहर का रहन-सहन या आचार विचार अहिंसा के अनुकूल होने ही वाला है । उसकी चिन्ता उसे करनी नहीं पड़ेगी । भगवान महावीर ने अनुभव कर लिया कि मनुष्य हिंसा के कुचक्र में उलझता है अपनी ही बैरभावना, द्वेषभाव, मोह, स्वार्थ, तृष्णा, घृणा, ईर्ष्या आदि दुर्वृत्तियों के कारण । वह हारता है तो अपने अहंकार के कारण, भस्म होता है तो अपने क्रोध के कारण ही, उसका ही द्व ेष उसे परास्त कर डालता है । वस्तुओं को नहीं छू कर भी वह उसके मोहजाल में फंस सकता है ।
अहिंसा की कसौटी : आत्मोपम्यवृत्ति
इसीलिए महावीर ने अहिंसा की कसौटी आत्मीपम्य वृत्ति को, राग
१ - कहा भी है- रागादीणमणुप्पा अहिंसत्तंति देसियं समए । तेसि चे उप्पत्ती हिंसेति जिणेहि निदिट्ठा ॥
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