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अहिंसा का सर्वांगीण स्वरूप १५७ अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।
राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि का प्रादुर्भाव न होना अहिंसा है, और इन्हीं विकारों का उत्पन्न होना हिंसा है, यही जिनागम का सार है। अहिंसा भावात्मक वस्तु है
वास्तव में अहिंसा सिर्फ बाह्य व्यवहार की वस्तु नहीं है, कि उसके सम्बन्ध में अमुक बातों का विधि-निषेध कर दें। अहिंसा भावात्मक वस्तु होने के कारण वह हमारी अन्तश्चेतना से सम्बन्ध रखती है । महात्मा गाँधी के मतानुसार "अहिंसा केवल आचरण का स्थूल नियम नहीं है, बल्कि मन की एक वृत्ति है । जिस वृत्ति में द्वष की गन्ध तक न हो, उसे अहिंसा समझना चाहिए । अहिंसा का भाव दृश्यमान नहीं है, बल्कि अन्तःकरण की रागद्वषहीन स्थिति में है । अहिंसा का साधक केवल इतने से सन्तोष नहीं मान सकता कि वह ऐसी वाणी बोले, ऐसा कार्य करे, जिससे किसी जीव को उद्वेग प्राप्त न हो, अथवा मन में किसी भी प्रकार का द्वषभाव न रहने दे; बल्कि जगत् में प्रवर्तित दुःखों का भी वह विचार करेगा और उन्हें दूर करने के उपायों का विचार भी करता रहेगा । इस प्रकार की अहिंसा केवल निवृत्ति रूप कार्य या निष्क्रियता नहीं, बल्कि जबर्दस्त प्रवृत्ति अथवा प्रक्रिया है।" अहिंसा केवल विधिनिषेधात्मक व्यवहार मात्र नहीं
मुझे कहना चाहिए कि अहिंसा का सूक्ष्म भाव, जिसके साथ अहिंसक का निरन्तर लगाव रहना चाहिए, सतत क्षीण होता जा रहा है। स्थूल व्यवहार के रूप में विधि-निषेधों का जाल बिछा दिया गया है । जिसमें उलझ कर अहिंसा का साधक समस्या का सही समाधान नहीं खोज पाता। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन का मूलाधार जिस अहिंसा को माना है, जिसे सहस्राब्दियों से परम धर्म के रूप में माना है और विश्वव्यापी सिद्धान्त के रूप में जिसकी चर्चा की है, वह अहिंसा का तत्त्व समाज एवं राष्ट्र के जीवन में प्रतिफलित क्यों नहीं हआ ? अहिंसा केवल बौद्धिक व्यायाम बनकर हो क्यों रह गयी ? तर्क-वितर्कों के साथ या बंधे-बंधाए विश्वासों के साथ ही अहिंसा क्यों रह गई ?
___आप कहेंगे कि हम माँस नहीं खाते, अंडे और मछलियाँ नहीं खाते, हम शाकाहारी हैं । हमारे रहन-सहन का दायरा अहिंसक है, हम किसी की
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