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१५६ तमसो मा ज्योतिर्गमय अहिंसा का अन्तरंग अर्थ
महात्मा गाँधीजी ने भी अहिंसा के अन्तरंग अर्थ का अनुसरण किया है---'अहिंसा के माने सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर मनुष्य तक सभी जीवों के प्रति समभाव । कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने भी गीता में अहिंसा का वर्णन किया है
समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं, ततो याति परां गतिम् । जो साधक परमात्मा को सभी आत्माओं में समान रूप में व्याप्त देख कर किसी की हिंसा नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि दूसरे की हिंसा करना, अपनी ही हिंसा करने के समान है। इस प्रकार वह समभावी हृदय के पूर्णतः विकसित होने पर उत्तम गति को प्राप्त करता है।
पातंजलयोगदर्शन के भाष्यकार ने अहिंसा का लक्षण इसी से मिलताजुलता किया है-'तत्राहिसा सर्वदा सर्वभूतेष्वनभिद्रोहः' समस्त काल में सर्वप्राणियों के साथ सर्वथा द्रोह न करना अहिंसा है । अहिंसा की व्याख्या में सभी मनीषियों का एक ही स्बर रहा है कि जिसके रहते किसी भी प्राणी के प्रति मन मस्तिष्क में हिंसा का तूफान न उठे; वाणी में आग न बरसे, क्रिया में निर्दोष एवं निरपराध प्राणियों के प्रति खून के फब्बारे न उछलें। अभिप्राय यह है कि समस्त प्राणियों के प्रति आत्मीय या आत्मवत् भाव रख कर किसी भी प्राणी की मन, वचन, कर्म से हिंसा न हो, पीड़ा या कष्ट न दिया जाए।
यही कारण है कि जब हम अहिंसा को हिंसा-विरोधिनी मानते हैं तो हिंसा के मूल कारणों का निराकरण करना ही अहिंसा है।
सारांश यह है कि अपने मन, वाणी या शरीर द्वारा जानबूझ कर, असावधानी से किसी भी प्राणी को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुँचाना, तथा आत्मौपम्य भावना से प्रत्येक कार्य या व्यवहार करना आहंसा है ।
चूँकि हिंसा एक प्रकार का भाव है और अहिंसा भी एक प्रकार का भाव है, तब हिंसाजनक या हिंसा-उत्तेजक भावों का प्रादुर्भाव न होना ही अहिंसा माना जाएगा। इसी बात को आचार्य अमतचन्द्र ने 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में अभिव्यक्त किया है१ गाँधी वाणी पृ. ३७
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