________________
अहिंसा का सर्वांगीण स्वरूप १५५ पालन का प्रथम चरण यह होगा कि तुम्हारी दृष्टि में कोई अपराधी हो, फिर भी उस पर प्रहार न किया जाय । कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने अहिंसा महाव्रत की निषेधात्मक परिभाषा इस प्रकार की है
1न यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् ।
सानां स्थावराणां तवहिंसावत मतम् ।। प्रमाद के वशीभूत होकर त्रस (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय) अथवा स्थावर (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय के) प्राणियों के प्राणों का हनन न करना अहिसा व्रत है।
परन्तु यह परिभाषा व्यक्तिगत अहिंसा को स्पष्ट करती है, जबकि एक व्यक्ति का जीवन सारे विश्व के प्राणियों के साथ केवल शरीर या कार्य से सम्बद्ध नहीं होता, अपितु वचन एवं मन के योग से भी और कारित और अनुमोदित करण से भी सम्बद्ध होता है । इसीलिए भगवान महावीर ने अहिंसा की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा
तेसि अच्छण जोएण निच्चं होयव्वमंसिधा ।
मणसा, काय-वक्केण एवं हबई संजए॥ मन, बचन और काया इन तीनों में से किसी एक के द्वारा किसी प्रकार से जीवों की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार करना ही सयमी जीवन है । ऐसे जीवन का निरन्तर धारण ही अहिंसा है। इसी व्याख्या का तथागत बुद्ध ने समर्थन किया है
त्रस एवं स्थावर जीवों को न स्वयं मारे, न वध करावे और न मारने वाले का अनुमोदन करे ।
इसी व्याख्या को स्पष्ट करते हुए कूर्मपुराण में कहा है-'मन, वचन और कर्म से सदा समस्त प्राणियों को क्लेश न पहुँचाने को ही परम ऋषियों ने अहिंसा कहा है।
१ योगशास्त्र २ दशवकालिक ८/३ ३ पाणे न हाने न घातयेय, न चानुमन्या हनतं परेसं ।
सव्वेसु भूतेसु निधाय दंडं, ये थावरा ये च तसंति लोके ।। -सुत्तनिपात ४ कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा ।
अक्लेशजननं प्रोक्ता त्वहिंसा परमर्षिभिः ॥ -कूर्मपुराण अ-७६/८०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org