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१५४ तमसो मा ज्योतिर्गमय
प्रकाश का लक्षण यदि आपसे पूछा जाय तो क्या बताएँगे ? लक्षण निरूपण से अधिक यह अनुभव की वस्तु है । अन्धकार ज्यों ही मिटता दीखेगा, त्यों ही प्रकाश का आविर्भाव होता रहेगा । इसलिए अन्धकार का विरोधी प्रकाश है, यों शब्दों से उसका प्ररूपण हुआ । इसी प्रकार हिंसा की विरोधिनी अहिंसा है । हिंसा का अभाव ही अहिंसा के अस्तित्व को बता देता है ।
अहिंसा केवल निषेधात्मक नहीं
परन्तु एक बात आपको ध्यान में रखनी होगी, संस्कृत भाषा में नञ् समास से दो प्रकार का अर्थबोध होता है । वैयाकरणों ने कहा हैनञर्थो द्वौ समाख्यातौ पर्युदास-प्रसज्यको । पर्युदासः सहग्ग्राही, प्रसज्यस्तु निषेधकृत् ॥
व्याकरण शास्त्र में नञ्समास के दो अर्थ बताए गए हैं- पर्युदास और प्रसज्य । पर्युदास रूप नञ् तद्भिन्न तत्सदृश अर्थ को ग्रहण करता है, जबकि प्रसज्य मिषेधात्मक अर्थ को ग्रहण करता है ।
यहाँ 'अहिंसा' शब्द में नञ्समास है, जिसका अर्थ केवल निषेधात्मक नहीं होता, अगर निषेधात्मक अर्थ ही हो तो अहिंसा का अर्थ, जो हिंसा न हो, इतना ही निकलता । हिंसा न हो, इसका मतलब पत्थर, लकड़ी, तख्त मेज, कुर्सी आदि सभी हो सकता है । किन्तु अहिंसा का यह अर्थ कदापि इष्ट नहीं है । इसलिए यहाँ अहिंसा का अर्थ है - हिंसा से भिन्न, हिंसा के सदृश कोई भावात्मक या विचारात्मक पदार्थ । अचेतन शब्द में प्रसज्य नञ समास है - यानी जो चेतन न हो, यानी जिसमें चेतना न हो, ऐसा जड़ पदार्थ । अचेतन की तरह 'अहिंसा' शब्द में प्रसज्यनञ् समास नहीं है ।
इसलिए अहिंसा का अर्थं केवल नकारात्मक नहीं हो सकता, 'हिंसा न करना' इतना ही अहिंसा का अर्थ नहीं है । इसलिए हिंसा से भिन्न, कोई भावात्मक पदार्थ - विधेयात्मक पदार्थ - सेवा, दया, क्षमा, करुणा, सहानु भूति आदि अहिंसा के अन्तर्गत आ जाते हैं ।
'किसी को न मारना' स्थूल अहिंसा है । यह अहिंसा की अनन्त सीमा नहीं है । यह तो अहिंसा की प्रारम्भिक रेखा है । मन में जब क्रोध बढ़ जाता है, उसे रोका नहीं जाता, तब मनुष्य प्रहार करने के लिए प्रवृत्त होता है । इस प्रकार के अति क्रोधी स्थूल दृष्टि वाले व्यक्ति के लिए अहिंसा का प्रारम्भ 'न मारने' के नियम से होगा । उसके लिए अहिंसा
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