SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा का सर्वांगीण स्वरूप १५३ करने की एक तर्ज कह सकते हैं, जो जीकर या जिसे जीवन में आचरित करके ही पहचानी जा सकती है, अहिंसा को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग करके ही वास्तविक रूप से समझी जा सकती है । मिश्री के मिठास की परिभाषा या स्वरूप आप क्या बतायेंगे ? उसका मिठास तो अनुभव करके या चखकर ही जाना जा सकता है। शब्दों में उसे विद्वान लोग बांध तो देते हैं, लेकिन शब्दबद्ध लक्षण से उसका यथार्थ अनुभव नहीं हो सकता । यही कारण है कि समभावी आचार्य हरिभद्रसूरि ने हिंसा अहिंसा की स्थूल परिभाषा न करके अहिंसा को आत्मा का स्वभाव एवं हिंसा को विभाव बताकर आत्म स्वरूप ही बताई है। उन्होंने कहा आया चेव अहिंसा, आया हिसेति निच्छओ एव । जो होई अषमतो, अहिंसओ हिसओ इयरो॥ अर्थात्- आत्मा ही अहिंसा है, और आत्मा ही हिंसा है, यही निश्चय दृष्टि से अहिंसा और हिंसा की परिभाषा है । आत्मा का स्वभाव और विभाव ही अहिंसा और हिंसा बनता है। आत्मा का अपने स्वभावानुसार आचरण अहिंसा बन जाता है और विभावानुसार आचरण हिंसा बन जाता है । व्यवहार दृष्टि से जो साधक अप्रमत्त होता है, वह अहिंसक और प्रमत्त होता है, वह हिंसक माना जाता है। निष्कर्ष यह है कि अहिंसा का लक्षण आत्मा के स्वभावानुसार आचरण से जाना जा सकता है। ___अहिंसा कोई स्थूल वस्तु नहीं है कि जिसका स्वरूप झटपट सबके ध्यान में आ सके । स्थूल वस्तु का ज्ञान सबको हो सकता है, क्योंकि वह सबको आँखों से प्रत्यक्ष दिखाई दे सकती है। इन्द्रियों से जो पदार्थ जाने जा सकते हैं, वे स्थूल कहलाते हैं। उन पदार्थों की तरह अहिंसा स्थूल पदार्थ नहीं कि उसका ज्ञान बिना आचरण के या संयम और तपश्चरण के सबको आसानी से हो सके । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा 'अहिंसा निउणा दिठ्ठा सधभूएसु सजमो' अहिंसा निपुणतापूर्वक भलीभाँति तभी देखी जा सकती है, जब समस्त प्राणियों के प्रति संयम हो। अहिंसा को भी हम शब्दों में बांध देते हैं, उसका स्वरूप-निरूपण करते हैं, लेकिन पूर्णरूप से अहिंसा के स्वरूप का दर्शन तो आपको उसके आचरण से ही प्रतीत होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy