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महामन्त्र : एक अनुचिन्तन ५ लिए ज्ञान की साधना अनिवार्य है । उपाध्याय ज्ञान की उपासना से संघ में अभिनव चेतना का संचार करता है।
पांचवें पद में साधु को नमस्कार किया गया है। जो मोक्ष मार्ग की साधना करता है, वह साधु है । साधु सर्वविरति-साधना पथ का पथिक है । वह परस्वभाव का परित्याग कर आत्मस्वभाव में रमण करता है। वह अशुभोपयोग को छोड़कर शुभोपयोग में रमण करता है। उसके जीवन के कण-कण में अहिंसा का आलोक जगमगाता है। सत्य की सुगन्ध महकती है । अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की उदात्त भावनाएँ अंगड़ाइयाँ लेती रहती हैं । वह मन, वचन और काया से महाव्रतों का पालन करता है ।
जैन धर्म में मूल तीन तत्त्व माने गए हैं-देव, गुरु और धर्म । तीनों ही तत्त्व नमोक्कार महामन्त्र में देखे जा सकते हैं। अरिहन्त जीवन-मुक्त परमात्मा है तो सिद्ध विदेहमुक्त परमात्मा है। ये दोनों आत्म-विकास की दृष्टि से पूर्णत्व को प्राप्त किये हुए हैं । इसलिए इनकी परिगणना देवत्व की कोटि में की जाती है । आचार्य, उपाध्याय और साधु आत्म-विकास की अपूर्ण अवस्था में हैं, पर उनका लक्ष्य निरन्तर पूर्णता की ओर बढ़ने का है। इसलिए वे गुरुत्व की कोटि में हैं । पांचों पदों में अहिंसा, सत्य, तप आदि भावों का प्राधान्य है। इसलिए वे धर्म की कोटि में हैं। इस तरह तीनों ही तत्त्व इस महामन्त्र में परिलक्षित होते हैं ।
नमोक्कार महामन्त्र पर चिन्तन करते हुए प्राचीन आचार्यों ने एक अभिनव कल्पना की है और वह कल्पना है रंग की। रंग प्रकृति नटी की रहस्यपूर्ण प्रतिध्वनियाँ हैं, जो बहुत ही सार्थक हैं । रंगों की अपनी एक भाषा होती है। उसे हर व्यक्ति समझ नहीं सकता, किन्तु वे अपना प्रभाव दिखाते हैं। पाश्चात्य देशों में रंग-विज्ञान के सम्बन्ध में गहराई से अन्वेषणा की जा रही है। आज रंग-चिकित्सा एक स्वतन्त्र चिकित्सा पद्धति के रूप में विकसित हो चुकी है। रंग-विज्ञान का नमोक्कार मंत्र के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है। यदि हम उसे जानें तो उससे अधिक लाभान्वित हो सकते हैं। आचार्यों ने अरिहन्तों का रंग श्वेत, सिद्धों का रंग लाल, आचार्य का रंग पीला, उपाध्याय का रंग नोला तथा साधु का रंग काला बताया है। हमारा सारा भूर्त संसार पौद्गलिक है। पुद्गल में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श होते हैं । वर्ण का हमारे शरीर, हमारे मन, आवेग और कषायों से अत्यधिक सम्बन्ध है । शारीरिक स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य, मन का स्वास्थ्य
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