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परमार्थ-परायणता की कसौटी १५१ सायी, नौकरीपेशा वाले या शासक वर्ग के लोग, स्वार्थ में ही डूबे हुए हैं, हम स्वार्थमग्न लोग परमार्थ कैसे कर सकते हैं । स्वार्थयुक्त कार्य भी परमार्थ-युक्त बन सकते हैं, बशर्ते कि परहित की परमार्थ भावना का उसमें समावेश हो । जैसे-खेती करने वाले व्यक्ति का भाव यह हो कि इससे हमारे परिवार के साथ ही समाज, राष्ट्र और अन्य प्राणियों को आहार मिलेगा, वे अपने-अपने सदस्यों को इस योग्य बना सकेंगे, ताकि समाजहित के साथ-साथ आत्मा का उद्धार कर सकें। नौकरी के साथ इस प्रकार के उच्च भावों को सम्मिलित किया जाए तो सोचने का दष्टिकोण ही बदल जाता है । अर्थात्-वह यह सोचे कि मैं किसी एक व्यक्ति या सरकार की नौकरी नहीं कर रहा है, अपितु पूरे राष्ट्र और समाज की सेवा कर रहा हूँ। अपना काम पूरी जिम्मेदारी एवं तत्परता से करना मेरा पुनीत कर्तव्य है। ऐसा भाव आते ही वह स्वार्थपरक कार्य परमार्थपरक बनकर अधिकाधिक सुख, सन्तोष और उत्साह देने वाला होगा। स्वार्थ परमार्थ बने, इसका सुगम उपाय यह है कि उस कार्य को केवल अपने सीमित स्वार्थ की सीमा तक नियंत्रित रखा जाए, उसका घेरा इतना न बढ़ाया जाए, कि वह दूसरों की सीमाओं का उल्लंघन करने लगे । साथ ही अपने स्वार्थ में लोभ, लिप्सा एवं लालसा-तृष्णा को स्थान न देना चाहिए। कोई भी ऐसा काम न करें जिसमें लोकनिन्दा, राजदण्ड या लोकापवाद का भागी बनना पड़े। अपने निजी स्वार्थ से जो न्याययुक्त उचित लाभ हो, उसका कम से कम एक अंश भी अगर लोकसेवा में लगाते रहे तो उसके फलस्वरूप व्यक्ति को अनिर्वचनीय आनन्द, सुख और उल्लास मिलेगा।
निकृष्ट स्वार्थभावना में से उच्च स्वार्थ की परिधि में जाने का साधारण-सा उपाय यह है कि व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को उज्ज्वल, उन्नत और व्यापक बनाए । दोष, पाप और मल ही मनुष्य को मलिन और निकृष्ट बना देते हैं, जब इन विकारों को वह निकाल फेंकेगा, तब निजी स्वार्थ, परमार्थ परक उच्च स्वार्थ बन जाएगा। ऐसी स्थिति में न तो अशान्ति की सम्भावना होगी, न ही असन्तोष का प्रवेश । स्वार्थों में उदात्तता का समावेश होते ही वे परमार्थ परक बन जाएंगे।
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