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________________ १५० तमसो मा ज्योतिर्गमय मन ही मन रह जाए । अतः जो अवसर आज सौभाग्य से प्राप्त है, उसे टालना ठीक नहीं । अमुक सुविधा मिलने पर परमार्थ कार्य करने की शर्त लगाना एक प्रकार की बहानेबाजी है । न जाने परमार्थ कार्य करने की फिर कभी भावना या उत्साह पुनः आए या न आए। किसी भी परमार्थयुक्त सत्कार्य को करने में अवसर या परिस्थितियाँ नहीं, अपितु भावना एवं उत्साह ही मुख्य होता है। भावना प्रबल हो तो निर्बल एवं असमर्थ व्यक्ति भी आश्चर्यजनक रूप से परमार्थ कर गुजरते हैं । इसके विपरीत जिनमें भावना नहीं, उनकी परिस्थिति भी अच्छी हो, अवसर भी अनुकूल हो, फिर भी वे कोई न कोई बहाना बनाकर परमार्थ के लिए टालमटल करते रहते हैं। उनका स्वार्थी मन, परमार्थ में कम बाधक नहीं होता। कभी-कभी कुटुम्बीजन भी अपने निहित स्वार्थवश उलटे-सीधे तर्क प्रस्तुत करके उसे परमार्थ से विरत कर देते हैं । ऐसे व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि आज जो परमार्थ कार्य करने की परिस्थिति है, वह आगे नहीं बनी रहेगी। मनष्य की चढ़ती-पड़ती दशा होती रहती है। आज वह धनवान है, कल को निर्धन भी हो सकता है। आज निश्चित है, बह कल अनेकों चिन्ताओं और समस्याओं से घिर सकता है । ऐसी दशा में उसका मनोरथ अधूरा ही पड़ा रहेगा। ___इसीलिए भगवान ने शुभ कार्य को करने के साथ ‘मा पडिबंध करेह' शुभ कार्य में देर मत करो। 'शुभस्य शीघ्रम्' के अनुसार इसे शीघ्र कर डालो । परमार्थ के लिए पैसे की ही जरूरत हो, ऐसा नहीं है । और समयाभाव का होना भी व्यर्थ है। खाने-पीने, सोने-जागने तथा विश्राम और मनोरंजन के समय में से कुछ समय अवश्य निकाला जा सकता है । सच्ची भावना हो और परमार्थ को अनिवार्य कार्यों की तरह अपरिहार्य समझा जाए तो उसे करने में धन या रुपये न होने का बहाना गौण हो जाता है। फिर परमार्थ तो तन, मन, धन या साधन से भी हो सकता है। कई परमार्थ कार्य तन या धन के न होने पर भी मन से भावना से भी हो सकते हैं । अतः परमार्थ के कार्य की उपेक्षा किसी भी हालत में करना उचित नहीं है। परमार्थ की श्रेणियाँ __ कई लोग कहा करते हैं कि उच्चकोटि का परमार्थ तो तीर्थंकर वीतराग प्रभु या साधु-सन्त ही कर सकते हैं। हम गृहस्थ या अमुक व्यव. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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