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परमार्थ-परायणता की कसौटी १४६ कर्म छोड़ दिये । इसी आत्मबोध के कारण बाल्मीकि एवं अंगुलिमाल का हृदय-परिवर्तन हो गया, वे महान ऋषि व भिक्षु बने ।
अन्न, वस्त्र, जल, स्थान आदि देने जैसे सहायता कार्यों की अपेक्षा आत्मबोध का ज्ञान दान अनेकगुणा उत्कृष्ट परमार्थ है; क्योंकि अन्नदान आदि का लाभ क्षणिक और तात्कालिक है। वे वस्तुएँ समाप्त होते ही, व्यक्ति फिर अभावग्रस्त हो जाता है ।) जबकि ज्ञानदान या आत्मबोध से व्यक्ति की अन्तःशक्ति जागृत कर देने पर वह अपनी अन्तरात्मा में भरे हुए खजाने से परिचित हो जाने पर सदा के लिए आत्मबोधसम्पन्न बन जाता है। आत्मबोध प्राप्त होते ही मनुष्य निकृष्ट जीवन का परित्याग कर तुच्छ से महान् बन जाता है। इसीलिए पंच-परमेष्ठी भगवन्त महान्, पूज्य एवं उच्चकोटि के परमार्थी माने गए हैं। आत्मबोध से सम्पन्न ऐसे व्यक्तियों के जीवन से भी अनेकों व्यक्तियों को प्रेरणा और शिक्षा मिली है। अतः सबसे उच्चकोटि का परमार्थ यही है कि सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति की क्षमता और योग्यता को समझकर उसमें आवश्यक ज्ञान एवं तप-त्याग की भावना उत्पन्न की जाए, उसकी अन्तरंग शक्ति जगाई जाए। उसे किसी ऐसी निकृष्ट प्रवृत्ति से विरत कर दिया जाए, जिससे वह आगामी संकट और दुष्कर्मजनित पीड़ाओं से बच सके । यद्यपि सद्ज्ञान-संवर्धन जैसे कार्य आँखों से न तो दीखते हैं, न ही उनमें तुरन्त वाहवाही मिलती है, और न लाभान्वित होने वाला उसकी प्रशंसा के पुल बांधता है । अतः सच्चा परमार्थी उच्चकोटि का विवेकवान्, दूरदर्शी एवं सत्परिणामों का मूल्यांकन करने वाला होता है। उसका संकल्प यह होता है कि अज्ञानग्रस्त अनेक मूढ़ताओं का शिकार, कुरूढ़िपरायण समाज' सम्यग्ज्ञान-दर्शन का प्रकाश प्राप्त कर सत्पथगामी या मोक्षगामी बने और कर्मबन्ध से मुक्ति पाए । परमार्थ-भावनाएँ टालिये मत
परमार्थ-कार्यों की मानव जीवन में दैनिक आवश्यकता को अनुभव करते हुए भी अधिकांश लोग उन्हें क्रियान्वित करने में प्रमाद करते हैं ।
बहत से लोग अवसर और परिस्थिति न होने का बहाना बनाते रहते हैं । परन्तु जो व्यक्ति अपनी आत्मा के प्रति वफादार और विवेकी है, उसके लिए परमार्थ के अवसरों की कमी नहीं है । अतः यह सोचना ठीक नहीं कि अवसर आएगा, तब परमार्थ कार्य करेंगे। हो सकता है, व्यक्ति का अभीष्ट अवसर जिंदगी में कभी न आए और उसका परमार्थ-मनोरथ
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