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________________ १४८ तमसो मा ज्योतिर्गमय हित की बात सूझती ही नहीं, और प्रायः अपने निजी लाभ के लिए नैतिक मर्यादाओं को तोड़ने या लोकहित को खतरे में डालने में कोई हिचक नहीं होती । इसके विपरीत परमार्थ-परायण व्यक्ति सार्वजनिक हित को प्रधानता देता है और अपना निजी लाभ उसी सीमा तक स्वीकार करता है, जिसमें सामाजिक हित या सुव्यवस्था को किसी प्रकार की हानि न पहुँचती हो । यह दृष्टिकोण का ही अन्तर है, जिसके कारण एक ही कार्य उत्कृष्ट भी हो सकता है, निकृष्ट भी । इसे ही हम क्रमशः परमार्थ और स्वार्थ कहते हैं । संसार के प्रत्येक महामानव परमार्थी रहे हैं । उनके तन-मन-वचन में लोकहित की प्रधानता थी । जनहित के लिए उन्होंने अपनी शक्तियों का अधिकाधिक भाग लगाया - खपाया है । अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को ठुकरा कर स्वयं कष्टसाध्य जीवन जीते हुए उन्होंने परमार्थ- प्रयोजनों में अपने आपको संलग्न रखा है। पीड़ित मानवता के घावों पर मरहम लगाने के लिए उसके पास जो कुछ बल, बुद्धि, विद्या, सम्पत्ति तथा शक्ति है, उसका वह अधिकाधिक भाग समर्पण कर देता है । परम परमार्थी रन्तिदेव के समान उसकी भावना एवं दृष्टि यही रहती है 'न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्ग, ना पुनर्भवम् । कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामात्तिनाशनम् ॥' 1 मैं राज्य की कामना नहीं करता, न ही स्वर्ग और मोक्ष चाहता हूँ । किन्तु दुःख से संतप्त प्राणियों की पीड़ा नष्ट करने की कामना करता है । ऐसी स्थिति में सच्चा परमार्थी यह नहीं सोचता कि अपने परिवार को अपने वैभव का लाभ मिलना चाहिए, बल्कि यही सोचता है कि प्रत्येक पीड़ित, अभावग्रस्त, अज्ञानग्रस्त एवं अधर्मपरायण व्यक्ति को उसकी शक्ति, बुद्धि, विद्या आदि का लाभ मिले । सबसे उच्चकोटि का परमार्थ : आत्मबोध वास्तव में देखा जाए तो सबसे उच्चकोटि का परमार्थ ज्ञानदान है । इसे ही शास्त्रीय भाषा में 'आत्म- बोध' कह सकते हैं । दृढ़प्रहारी, चिलातीपुत्र, रोहिणेय, हरिकेशबल मुनि आदि अपराधकर्मी व्यक्तियों को परमार्थी महापुरुषों द्वारा आत्मबोध मिला, जिससे उनका जीवन ही बदल गया । परमार्थी नारदजी से डाकू बाल्मीकि को एवं महात्मा बुद्ध से अंगुलिमाल को ऐसा आत्मबोध मिला कि उन्होंने लूट, हत्या, त्रास देना आदि सब पाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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