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________________ परमार्थ-परायणता की कसौटी १४७ धिक पैसा बटोरने में नहीं हिचकता तो समझना चाहिए, वह स्वार्थी विद्वान् है । यदि वह विद्या का उपयोग विनाशकारी साधन बनाने में करता है तो समझना चाहिए, वह निकृष्ट स्वार्थी है । इसके विपरीत यदि वह दूसरों का हित साधन करने में अपनी विद्या का उपयोग करता है, समाज के धनीमानी लोग उसके निर्वाह व्यय के साधन जुटा देते हैं तो समझना चाहिए, वह परमार्थ के पथ पर है । निष्कर्ष यह है कि यदि कर्ता का दृष्टिकोण किसी कार्य को संकीर्ण 'स्व' के लिए या सम्बद्ध सीमित परिवार के सीमित लाभ को लेकर करने का है, तो वह 'स्वार्थ' है, परन्तु उसी कार्य के पीछे कर्ता का दृष्टिकोण सार्वजनिक हित का है, तो वह परमार्थ है । यही कारण है कि निकृष्ट स्वार्थ को पाप का और परमार्थ को पुण्य का आधार माना गया है । निकृष्ट स्वार्थ से दूसरों का उत्पीड़न होता है, जबकि परमार्थ से दूसरों के कल्याण और अपने धर्म का पालन होता है । इसे दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि लोभ, लोलुपता और परपीड़न की भावना से प्रेरित प्रवृत्तियाँ निकृष्ट स्वार्थ हैं । संकीर्ण, भौतिक एवं निकृष्ट स्वार्थ को मिथ्या स्वार्थ एवं मनस्वी महात्माओं द्वारा निन्द्य एवं हेय बताया गया है। झूठा स्वार्थ मनुष्य को वासना और तृष्णा में ग्रस्त करके अनेक कुकर्म करने को विवश कर देता है । ऐसा संकीर्ण स्वार्थी मानव धर्म की उपेक्षा करने लगता है, जिससे वह संसार का अपकार ही करता है, अपना भी पतन करता है । वह तात्कालिक लाभ के बदले लोकनिन्दा, अविश्वास, असन्तोष, विरोध, विक्षोभ, आत्मग्लानि, अशान्ति आदि प्राप्त करता है । इसीलिए महर्षि व्यास ने सभी धर्मग्रन्थों का निचोड़ प्रस्तुत कर दिया है 'परोपकार : पुण्याय पापाय परपीडनम् ।' 'परोपकार = परमार्थं पुण्य के लिए और परपीड़न = तुच्छ स्वार्थ पाप के लिए होता है।' ऐसा नारकीय स्वार्थान्ध मानव कष्टदायक मानसिक एवं शारीरिक नरक में पड़ता है । इस तथ्य -सत्य का कारण यह है कि स्वार्थान्ध व्यक्ति अपने सीमितसंकुचित लाभ में इतना डूबा रहता है कि उसे परमार्थ की - सार्वजनिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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