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________________ १४६ तमसो मा ज्योतिर्गमय आचारांग सूत्र में आश्रव-संवर के विवेक के सम्बन्ध में एक सूत्र आता है'जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा । इसका भावार्थ यह है कि जो कार्य या स्थान आश्रव के हैं, वे ही परिश्रव अर्थात् संवर के हो जाते हैं, और जो संवर के कार्य या स्थान होते हैं, वे भी आश्रव के स्थान या कार्य हो जाते हैं । इसका भी प्रमुख कारण कर्ता का परिणाम या दृष्टिकोण है। बाहर से स्वार्थ दीखने वाले कार्य भी परमार्थ जैसे पुण्य-फलदायक हो सकते हैं और परमार्थ के आडम्बर में भी स्वार्थ सिद्धि की दुरभिसन्धि छिपी हो सकती है । स्वास्थ्य-रक्षा, शिक्षा, चिकित्सा एवं अर्थसहायता आदि कार्य देखने में परहित के मालूम होते हैं, परन्तु इन शुभ कार्यों के पीछे भी धर्मान्तर कराकर अपने अनुयायी बढ़ाने, अथवा किसी को अन्धविश्वास में फँसा कर उससे धन बटोरने का प्रयोजन हो तो क्या उसे परमार्थ का कार्य कहा जाएगा ? परन्तु यदि स्वहित के प्रतीत होने वाले शिक्षा प्राप्ति, अर्थोपार्जन या वैज्ञानिक आदि कार्य यदि इन उपलब्ध शक्तियों का उपयोग लोकहित के लिए किया जाए तो इन सबको परमार्थ माना जाएगा। इसके विपरीत यदि कोई धार्मिक या सांस्कृतिक समारोह या आडम्बर अथवा लोकसेवा का घटाटोप इसलिए रचा गया हो कि उसकी ओट में लोगों से अधिकाधिक पैसा बटोरा जा सकेगा या उसके कारण धर्मात्मा, सेवाभावी या प्रामाणिक होने की ख्याति बटोरी जा सकेगी, तो समझना चाहिए कि बाहर से परमार्थ कार्य प्रतीत होते हुए भी वे निम्न स्तर के स्वार्थ साधन हैं । स्वार्थी या परमार्थी की परख के लिए कर्ता का दृष्टिकोण या परिणाम जानना आवश्यक है। स्वार्थ के लिए पहलवान बनने वाला व्यक्ति कुश्तीप्रतियोगिता में जीतने, दूसरों को दबाने-सताने या डराने-धमकाने अथवा बलप्रयोग से दूसरों से अपनी बात मनवाने में अपने बल का प्रयोग करेगा। स्वार्थपरता की उत्कटता हुई तो वह अपनी बलिष्ठता का उपयोग चोरी, डकैती, गुण्डागर्दी जैसे दुष्कृत्यों में करने लगेगा। इसके विपरीत परमार्थ का दृष्टिकोण रखकर पहलवान बनने वाला व्यक्ति अपनी शारीरिक शक्ति का उपयोग अबलाओं की शील-रक्षा करने में, अन्यायी, अत्याचारी या आततायियों से असमर्थों-दुर्बलों की रक्षा करने में, न्याय दिलाने, शान्ति. रक्षा में या पीड़ितों की सेवा करने में करेगा। यही बात विद्या, धन आदि के उपार्जन करने वाले व्यक्तियों के सम्बन्ध में कही जा सकती है । यदि वह विद्या प्राप्त करके ज्ञान का एक-एक कण बेचता है, मुफ्त में रत्ती भर ज्ञान भी नहीं देता है। अपने चातुर्य से वाग्जाल रचकर विद्यार्थियों से अधिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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