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________________ परमार्थ-परायणता की कसौटी १४५ संघर्ष, द्वेष, ईर्ष्या, लोभ-लिप्सा आदि दोषों का मूल कारण स्वार्थपरता ही है । निकृष्ट स्वार्थपरता के कारण मनुष्य चोर, डकैत, ठग, बेईमान और दुष्ट बन जाता है। ऐसे निकृष्ट स्वार्थ की ओर पैर बढ़ाते समय उसकी आत्मा धिक्कारती है। लोग उसकी अप्राकृतिक प्रवृत्ति एवं निन्दनीय दुर्बलता जान कर उसके प्रति आशंका एवं तिरस्कृत भावना से देखते हैं । स्वार्थपूर्ण जीवन सबसे दुःखदायी जीवन है। वे समाज और राष्ट्र में नरक-सी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देते हैं। अतः निकृष्ट स्वार्थी का जीवन अशान्त, चिन्तित एवं असन्तुष्ट रहता है। इसके विपरीत परमार्थ बुद्धि रखने वाले व्यक्ति का सामाजिक और राष्ट्रीय ही नहीं, पारिवारिक जीवन भी शान्त, सुखी एवं सन्तुष्ट रहता है। परिवारों में कलह का प्रमुख कारण तुच्छ स्वार्थ ही होता है। परिवार में जहाँ मुखिया स्वार्थपरायण होता है, वहाँ सभी लोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए अधिक से अधिक सुख-सुविधाएँ एवं वस्तुएँ चाहते हैं । ऐसी स्थिति में परिवार नरकतुल्य कष्टदायक बन जाता है। किन्तु जिन परिवारों के मुख्य व्यक्ति परमार्थ दृष्टि वाले होते हैं, वे सर्वप्रथम अपने स्वार्थ का परित्याग करके अधिकारों के बदले कर्तव्यों को अपनाते हैं। सबको समुचित आदर और समान प्रेम देते हैं । अपना कोई भाग न रखकर सारे का सारा अपने परिजनों को बाँट देते हैं। ऐसे समभावी प्रमुख को कष्ट पहुँचाना तो दूर, उसके विरुद्ध कुछ भी बोलना कौन चाहेगा ? यही कारण है कि जिस परिवार में परमार्थ के संस्कार कूट-कूट कर भर जाते हैं उस परिवार में न्याय, नीति, निःस्वार्थ प्रेम और वात्सल्य का झरना सतत बहता रहता है। सारे परिवार को उस परमार्थी प्रमुख के गुणों का चेप लग जाता है, किसी में तुच्छ स्वार्थ की गन्ध भी नहीं रहती। इस प्रकार जिस परमार्थी आत्मा ते स्वार्थ का त्याग और परमार्थ का ग्रहण अपने संस्कारों में रमा लिया, अपना जीवन भी तदनुरूप ढाल लिया, उसने मानो जीते जी इस लोक में ही स्वर्ग का द्वार खोल दिया। परमार्थी की इस सन्तोषपूर्ण स्थिति में कितनी मानसिक और आत्मिक उन्नति हो सकती है, इसे परमार्थ-पथ अपनाने वाला अनुभवी ही जान सकता है। स्वार्थ और परमार्थ का मुख्य आधार : दृष्टिकोण स्वार्थ और परमार्थ का अन्तर किसी कार्य के बाह्य स्वरूप को देख कर नहीं, अपितु कर्ता के दृष्टिकोण को समझकर ही जाना जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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