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________________ तमसो मा ज्योतिर्गमय आवश्यकताओं में भी कटौती करके बचाता है, उसे परमार्थ - प्रयोजन में लगा देता है । १४४ उपभोग की प्रसन्नता तुच्छ स्तर के लोगों को होती है, परमार्थी को नहीं । परमार्थी मानव निजी उपभोग की अपेक्षा परमार्थ कार्यों में उपार्जित शक्तियों एवं वस्तुओं का सदुपयोग होते देखकर अधिक प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होते हैं । वह लोकहित में अपने साधनों का प्रयोग करता है । परमार्थपरायण व्यक्ति का अध्यात्म-परक चिन्तन यही रहता है कि हम सौ हाथों से कमाएँ अवश्य पर हजार हाथों से साहसपूर्वक बाँट दें। हम में दूसरों का दुःख बाँट लेने और अपना सुख बाँट देने की प्रवृत्ति मुखर हो । हमारा दृष्टिकोण एवं क्रिया कलाप अधिकाधिक परमार्थ- परायण हो, इसी में व्यक्ति का गौरव है, समाज का हित है । ऐसा परमार्थी व्यक्ति बाहर से भले ही साधारण स्थिति का दिखाई दे, वह हँसता- मुस्कराता या खिलखिलाता दृष्टिगोचर न हो तथापि उसका अन्तःकरण परिपूर्ण बना रहता है । उसके रग-रग में स्वार्थ-त्याग की भावना भरी रहती है और स्वार्थ-त्याग के लिए वह कठोर तपस्या भी करने को उद्यत रहता है । उसमें एक अहेतुक सम्पन्नता और गरिमा की अनुभूति बनी रहती है। किसी का हित करना, पीड़ितों और पददलितों तथा आवश्यकता-विहीनों की सेवा करना, किसी की सहायता में तत्पर रहना, किसी को दुःखित पीड़ित देखकर सहानुभूति प्रकट करना, ऐसी परमार्थी वृत्ति है, जो परमार्थी की आत्मा को ही सन्तुष्ट नहीं करती, बल्कि उसके सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति को सन्तुष्ट और प्रसन्न करती है | जिससे उसकी आत्मा आनन्दित होती है । समाज के लोग उसे श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, उसकी प्रशंसा भी करते हैं, उसका कोई शत्रु नहीं होता, सभी उससे प्रेम करते हैं । इसलिए महर्षि व्यास ने कहा है- जीवितं सफलं यस्य यः परार्थोद्यतः सदा - जीवन उसी का सफल है, जो सदा परोपकार में प्रवृत्त रहता है । अन्ती की विशाल जनसभा में एक जिज्ञासु महात्मा बुद्ध से पूछा - " भगवन ! संसार में सबसे बालक को प्रतिभा देखकर महात्मा बुद्ध ने गम्भीर होकर कहा - "जो केवल अपनी ही बात सोचता है, अपने स्वार्थ को ही सर्वोपरि मानता है वही छोटा है ।" यह है - स्वार्थ पूर्ण जीवन की संक्षिप्त झांकी ! Jain Education International बालक ने तथागत छोटा कौन है ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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