________________
परमार्थ-परायणता को कसोटी १४३ उनका भरण-पोषण करता है । पत्नी को शारीरिक सेवाओं के लाभ मिलने की आशा से तथा पुत्र को दहेज आदि के रूप में प्रचुर धन मिलमे एव बड़ा होने पर कमा कर खिलाने की आशा से प्यार करता है। बेटी से उसे कोई लाभ नहीं, हानि है, इसलिए उसे हेय लगती है । स्त्री भी यदि कुरूप, रुग्ण, वन्ध्या आदि हो तो उसे भी वह अपना वश चलते छोड़ने में नहीं हिचकिचाता । कई लोग बेटी को बेचने या बहन का धन हड़प जाने में भी नहीं हिचकते । जीभ के स्वाद के लिए ऐसे कुकर्मी पशु-पक्षियों का वध करते हुए संकोच नहीं पाते । संसार में कोई भी ऐसा अनैतिक आचरण या पापकर्म नहीं, जिसे निकृष्ट स्वार्थी न करता हो। अपराध और कुकर्म करना स्वार्थपरता का उत्कृष्ट रूप है।
तुच्छ स्वार्थी का दृष्टिकोण संकुचित, तुच्छ और निन्दनीय होता है। वह पैसा कमाता है, उसे घर के लोगों को अधिक सम्पन्न बनाने या अपने भोग-विलास एवं ऐशआराम में खर्च करता है । समाज में कितने ही लोग अशिक्षित, बीमार, बेकार, कुरूढ़िग्रस्त हैं, निर्धनता की चक्की में पिस रहे हैं, फिर भी उन्हें सुपथ पर लाने या सहयोग देने में वह खर्च करना नहीं चाहता । किसी के दवाब से, या यशोलिप्सा से, अथवा किसी मामले में फँस जाने के कारण रोते-झींकते किसी को कुछ दे दे तो बात दूसरी है। निष्कर्ष यह है कि निकृष्ट स्वार्थी व्यक्ति को अपना स्वार्थ सर्वोपरि लगता है । अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए लोकहित की असीम क्षति होती होगी तो भी उसे कोई झिझक महसूस नहीं होती।
इसके विपरीत परमार्थी मानव सार्वजनिक हित के लिए स्वयं घाटा सहने, या कष्ट सहने को तैयार रहेगा । परमार्थपरायण मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सोचता है। वह अपने आसपास बिखरे पड़े पीड़ा और पतन के करुणापूर्ण दृश्य देखकर पिघल जाता है और अपने पास जो कुछ भी है. उसे दयार्द्र होकर उन दुःखितों के दुःख दूर करने में लगा देने में नही हिचकिचाता । दूसरों का दुःख बाँट लेने और अपना सुख बाँट देने की दो कसौटियाँ ही पारमार्थिक अध्यात्मजीवन को खरा सिद्ध करती हैं । ऐसी स्थिति में परमार्थी मानव जो कुछ पाता है या न्याय-नीति पूर्वक उपार्जन करता है, उसी में से अपने निर्वाहार्थ न्यूनतम आवश्यकता भर रखकर शेष सब परमार्थ कार्यों में लगा देता है। परमार्थ-परायण व्यक्ति के लिए अमीरी ठाठ-बाट भरा जीवन जीना तथा भविष्य में सम्पत्ति, विलासिता और अहंतापूर्ति के लम्बे-चौड़े सपने देखना सम्भव नहीं है। वह तो अपनी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org