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१४२ तमसो मा ज्योतिर्गमय
और अन्त दुःखद होता है, जबकि परमार्थ से प्राप्त सुख स्थायी और विक्षोभरहित होता है । फिर क्यों न परमार्थ के अन्तर्भाव भरे हुए स्वार्थों द्वारा सुख और सन्तोष पाया जाए ?
निष्कर्ष यह है कि उत्कृष्ट स्तर का स्वार्थ वस्तुतः परमार्थ का ही एक रूप होता है । मनुष्य के सत्कार्य, सच्चरित्रता और सद्गुण स्वयं ही परमार्थ बन कर संसार में अभिव्यक्त होते हैं। लोक-कल्याण और आत्मकल्याण की गति-मति और दृष्टि भिन्न-भिन्न नहीं होती। जो माध्यम आत्मकल्याण का होता है, वही लोककल्याण का होता है । यद्यपि परमार्थपरायण पुरुष लोक-कल्याण या विश्वोद्धार करने का आग्रह नहीं रखता एवं ठेका नहीं लेता। उसके द्वारा अनायास ही लोक-कल्याण होता रहता है। परमार्थी के तप और भावना का प्रभाव पतित को पावन करने में समर्थ
परमार्थी एवं आध्यात्मिक व्यक्ति जब आत्म-सम्प्रेक्षण करता है, तब दूसरे या अपने आस-पास के व्यक्तियों की बुराई, पसन एवं पापग्रस्तता का कारण अपने भोतर खोजता है, वह उन व्यक्तियों में इन दोषों के रहने का कारण अपनी आत्मा की दुर्बलता, आत्मशक्ति की न्युनता या आत्मा पर आई हुई मलिनता मानकर उसका निराकरण करता है, तपस्या, अनुप्रेक्षा और भावना द्वारा उन व्यक्तियों का हृदय-परिवर्तन करने का पुरषार्थ करता है। हालांकि वह दूसरों को सुधारने का दावा या अहंकार नहीं करता, फिर भी वह ऐसा प्रयत्न करता है, जिससे दोषी, पतित या पापी व्यक्ति स्वयं सोचने और बदलने को मजबूर हो जाए। परमार्थपरायण पुरुष के वात्सल्य, तप एवं भावना का प्रभाव उस पर इतना गहरा पड़ता है कि उससे प्रभावित होकर बुरा व्यक्ति भी अच्छा बन जाता है, पतित और पापी भी धर्मात्मा और सन्त या सज्जन बन जाता है। परमार्थी व्यक्ति के इर्द-गिर्द या सम्पर्क में आने वाले पर उसके वायुमण्डल, प्रभामण्डल का, शुद्धविचार की लहरों या परमाणुओं का प्रभाव इतना अचूक पड़ता है, जिससे बुरे विचारों या कार्यों के परमाणु दब जाते हैं, या प्रभावहीन हो जाते हैं और अच्छे विचार उनके मन-मस्तिष्क पर छा जाते हैं। फिर उन्हें बुराई या पाप करने का विचार तक ही नहीं आता। स्वार्थी और परमार्थी जीवन का निर्णय __स्वार्थी व्यक्ति अपने लिये ही सब कुछ सोचता और चाहता है। वह अपने स्त्री-बच्चों को भी स्वार्थ-साधन के रूप में देखता है और इसी कारण
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