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परमार्थ-परायणता की कसौटी .४१ सुगम मार्ग यही है कि व्यक्ति अपने आत्मसुधार के माध्यम से विश्व सुधार और विश्वोद्धार में लगे। आत्मोद्धार के बिना विश्वोद्धार सम्भव नहीं
___ जो व्यक्ति संसार को स्वच्छ और सुसंस्कृत बनाना चाहते हैं उन्हें सर्वप्रथम अपने आपको स्वच्छ और सुसंस्कृत बनना अनिवार्य है। यदि वे स्वयं बुरे हैं तो उनके द्वारा संसार को अच्छा और सुसंस्कारी बनाना सम्भव नहीं होगा। फिर चाहे वे समाज में जाकर लोगों की सेवा ही क्यों न करते हों, या लोगों को ज्ञान का प्रकाश और सद्भावना का अमृत ही क्यों न बांटते हों। उसका पहला कारण यह है कि लोग उस (बुरे) व्यक्ति पर विश्वास ही न करेंगे, कदाचित् कोई उसका लच्छेदार भाषण-संभाषण सुनने को तैयार भी हो जाए, तो भी उसका कोई चिरस्थायी प्रभाव नहीं होगा । कदाचित् ये दोनों बातें हो जाय, तो भी एक ओर वह जितना सुधार करेगा, दूसरी ओर उसकी बुराइयाँ एव कमजोरियां उतनी ही तेजी से उसमें दम्भ, अहंकार, क्रोध, लोभ, राग-द्वष आदि विकार पैदा कर देंगे। अतः यही परमार्थ का सर्वोत्तम मार्ग है कि संसार का उद्धार करने से पूर्व आत्मोद्धार किया जाए। सदाशयतापूर्ण स्वार्थ भी परमार्थ का एक अंग
___आत्मोद्धार, आत्मकल्याण या आत्मविकास को निकृष्ट स्वार्थ मानना भारी भूल है। क्योंकि सदाशयतापूर्ण स्वार्थ भी एक प्रकार से परमार्थ है । अपनी आत्मा का स्वार्थ जिन उदात्त एवं पवित्र विचारों, कार्यों या उद्देश्यों से सिद्ध होता है, उन्हीं के माध्यम से संसार का हित-साधन भी होगा। व्यक्ति को जिन गुणों एवं उपायों से आत्मशान्ति, आत्म-सन्तोष और आत्मकल्याण का लाभ होगा, उनके सिवाय और कौन-से कारण और उपाय होंगे, जो दूसरों की आत्माओं को इन गुणों से सम्पन्न कर सकें ? उत्कृष्ट स्तर का स्वार्थ : परमार्थ का रूप
जो कार्य उच्च उद्देश्य और उज्ज्वल स्वार्थ को लेकर किया जाता है, उसका अन्तर्भाव एक प्रकार से परमार्थ में ही होता है। इसलिए कहना होगा कि सच्चा स्वार्थ ही परमार्थ है । स्वार्थ सिद्धि का परिणाम यदि आत्मसुख, आत्मसंतोष और आत्मकल्याण है तो परमार्थ का परिणाम भी वही माना जाता है । अन्तर इतना-सा है कि कोरे स्वार्थ का सुख अस्थायी
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