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________________ १४० तमसो मा ज्योतिर्गमय इस प्रकार विश्वकल्याण या विश्वोद्धार की व्यापक भावना के अन्तर्गत व्यक्ति के आत्मकल्याण या आत्मोद्धार की भावना आ जाती है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों में कोई अन्तर नहीं है । आत्मोद्धार : संसार के उद्धार का प्रथम चरण एक और दृष्टि से सोचें तो भी अपना उद्धार करना संसार का उद्धार करने का प्रथम चरण है । जो पहले अपना सुधार या उद्धार नहीं कर सकता वह संसार का या किसी दूसरे का सुधार या उद्धार कैसे कर सकता है ? जो स्वयं क्षमादि दश उत्तम श्रमण धर्मों से सम्पन्न है, वही दूसरों को क्षमा, निर्लोभता आदि उत्तम धर्मों की शिक्षा देने का अधिकारी है । तीर्थंकर भगवान् ने भी सर्वजगत् के जीवों की आत्मरक्षा रूप दया से प्रेरित होकर अपना प्रवचन कहा है । अतः जो स्वयं अच्छा होगा, सज्जन होगा, वही दूसरे को अच्छा एवं सज्जनता से सम्पन्न बना सकता है। सच्चा साधक संसार को जिस रूप में देखना चाहता है, सर्वप्रथम उसे स्वयं ही वैसा बनना पड़ेगा । तभी वह अपने व्यक्तित्व को विश्वत्व में प्रतिबिम्बित और समर्पित कर सकेगा । यही कारण है कि सच्चा साधक संसार का कल्याण या सुधार का कार्य अपने से प्रारम्भ करता है । आत्म-सेवा या आत्म दया भी वस्तुतः संसार-सेवा या संसार दया का अंग है । आत्म-सुधार ही संसार-सुधार का आसान उपाय । आत्मोद्धार या आत्मसुधार संसार का सुधार करने का सरल और आसान उपाय है । दूसरों पर नियन्त्रण करने की अपेक्षा अपने पर अपना अधिकार और नियन्त्रण अधिक होता है स्वयं को अपनी इच्छानुसार चाहे जिस ओर मोड़ा या चाहे जिस आदर्श में ढाला जा सकता है। दूसरों पर व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं होता । साधक किसी से 'कुछ निवेदन, प्रेरणा या निर्देश ही कर सकता है, समझा सकता है, परामर्श दे सकता है, किन्तु अपनी तरह उसे अपने मनोनीत पथ पर बलात् चला नहीं सकता । और यह भी निश्चित नहीं कि निवेदन आदि करने पर दूसरे लोग उसकी बात मानें ही । वे मान भी सकते हैं और नहीं भी । इस संदिग्ध स्थिति में विश्व सुधार का कार्य सरलतापूर्वक नहीं किया जा सकता । अतः सबसे सही औ १ देखिये प्रश्नव्याकरण सूत्र में - " सव्वजगजीव- रक्खण-दयट्टयाए पाव यणं भवया सुकहिमं ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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