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________________ परमार्थ परायणता की कसौटी १३६ नदियाँ अपना जल स्वयं नहीं पीती, वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, बादल अपने द्वारा बरसाये हुए जल से उत्पन्न धान्य का उपभोग स्वयं नहीं करते । वस्तुतः सज्जनों की सम्पदाएँ परोपकार के लिये ही होती हैं। इससे भी सिद्ध होता है कि मनुष्य को प्राणिमात्र के हित के लिए ही मानव-जीवन मिला है। अतः जिस प्रकार शारीरिक विकास, स्वास्थ्य एवं दीर्घायुष्य के लिए यथोचित खाना-पीना, सोना-जागना, व्यायाम करना आदि चर्या आवश्यक है, उसी प्रकार आध्यात्मिक स्वास्थ्य, विकास एवं कल्याण के लिए परमार्थ कार्य करते रहना बहुत आवश्यक है। दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल एवं निष्कलंक रहना अत्यन्त दुष्कर है। अतः नित्य कर्मों की भांति मनुष्य को परमार्थ को भी जीवनक्रम का अभिन्न अंग बनाना चाहिए। अगर वह परमार्थ-प्रकृत्तियों में रत नहीं रहता, तो उसके जीवन में पापकर्मों के प्रविष्ट होने की सम्भावना है । पाप से बचे रहने के लिए किसी भी योग्य परमार्थ कार्य में लगा रहना आवश्यक है। जो सज्जन अपने अन्तःकरण में परमार्थ बुद्धि का, अपने शरीर में परमार्थ कार्य का तथा बुद्धि में उदार एवं परिष्कृत दृष्टिकोण का विकास कर लेते हैं तथा अपनी आत्मा में आध्यात्मिक स्फूर्ति स्थापित कर लेते हैं, उन्हें फिर कोई भी प्रवृत्ति पापमार्ग में धकेल नहीं सकती। आत्मोद्धार ही प्रकारान्तर से विश्व-उद्धार है दूसरी दृष्टि से देखें तो परमार्थ से छद्मस्थ साधक को भी दो लाभ हैं-एक तो आत्मोद्धार और दूसरा विश्व कल्याण । जो दूरदर्शी मनीषी महात्मा अपने उद्धार, सुधार या अभ्युदय पर जितना ध्यान देते हैं, अपनी त्रुटियों और दोषों-दुर्बलताओं को खोजने और दूर करने का पुरुषार्थ करते हैं, वे एक प्रकार से उतना ही संसार का सुधार एवं उपकार करते हैं; क्योंकि ऐसे साधकों के ज्ञान-दर्शन-चारित्र के शुद्ध आचरण से अनेक लोगों को शुद्ध आचरण की प्रेरणा मिलती है, अनेकों को उस प्रकार के आचरण से आत्मसन्तोष एवं आत्मिक सुख शान्ति मिलती है। इस दृष्टि से व्यक्ति का सुधार भी संसार का सुधार है, और संसार का सुधार परमार्थ कार्य ही होता है । जो अपनी आत्मा को उज्ज्वल बनाता है, जो अपने अध्यात्मपथ को प्रशस्त करता है, वह संसार के भविष्य को उज्ज्वल बनाता है, तथा संसार के लिए अध्यात्म-पथ को प्रशस्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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