SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ तमसो मा ज्योतिर्गमय फिर वे स्वयं भी तन-मन-धन-साधन आदि किसी भी रूप में परोपकार एवं परहित में सक्रिय रूप से प्रवृत्त होने लगेंगे। इस प्रकार परम्परा से परमार्थी, परहितैषी, मानवतापरायण सज्जन व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होगी, जिससे समाज, राष्ट्र एवं विश्व में शान्ति, समृद्धि एवं कल्याणकारिता बढ़ेगी । इस प्रकार परमार्थ-पूर्ण परोपकार मानव जाति की सुरक्षा, विकास, कल्याण एवं सुख-शान्ति का अमोघ उपाय है। मानव समाज को जीवित, विकसित एवं सद्गुणों से समृद्ध रखना है, तो उसके सदस्यों में परस्पर परमार्थ भावना एवं परोपकारी प्रवृत्ति चलती रहनी चाहिए। मानव जीवन को सार्थकता भी परमार्थ एवं परोपकार में लगाने में है । परोपकार ही सच्चे इन्सान का लक्षण है। जो मनुष्य स्वार्थी, कृपण और संकीर्ण बनकर जीता है, उसका जीवन मानवीय वृत्ति का नहीं, पशुवृत्ति का है । केवल स्वार्थ के लिए पशु भी नहीं जीता, वह भी प्रायः मानव का उपकारी एवं सहयोगी बनकर जीता है। निपट स्वार्थी मनुष्य का जीवन तो पशु से भी गया-बीता, निःसार एवं महत्वहीन है । शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो चार कारणों से मानव-शरीर मिलता है(१) प्रकृति-भद्रता, (२) प्रकृति-विनीतता, (३) परदया के लिए और (४) परहित के लिए। इस दृष्टि से मानव शरीर का महत्व संसार के दुःखी पीड़ित, अभावग्रस्त एवं पददलित प्राणियों का यत्किचित् हित साधन करने में है । अतः मानव शरीर का मिलना इसी शर्त पर निर्भर है कि वह पर मार्थ और परोपकार करता रहे। अगर वह मनुष्य शरीर पाकर भी परमार्थ-पथ में यत्किचित् भी प्रवृत्त नहीं होता है तो फिर उसे मानव-शरीर मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । भगवन महावीर ने स्पष्ट कहा है-'दुल्लहे खलु माणुसे भवे ।' मनुष्य-भव मिलना बहुत ही दुर्लभ है। प्राकृतिक उपादान भी जब अपनी वस्तु का स्वयं उपभोग न करवे दूसरों के उपकार के लिए लुटा देते हैं, तब मनुष्य को तो अपनी शक्तियों महत्वाकांक्षाओं एवं क्षमताओं के अनुसार कुछ न कुछ परोपकार, परमार्थ या परहित करना ही चाहिए । नीतिकार कहते हैं पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः । स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः। नादन्ति शस्यं खलु वारिवाहाः । परोपकाराय सतां विभूतयः॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy