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________________ परमार्थ-परायणता की कसौटी १३७ दूरगामी नहीं, निकटगामी है । परमार्थ-साधना का फल इसी लोक में सुख, शान्ति और सन्तोष के रूप में तुरन्त मिलता है। परमार्थ-जन्य सुख को तुलना स्वार्थजन्य सुख से कदापि नहीं की जा सकती। जहाँ पहला सुख कल्याणकारी है, वहाँ दूसरा सुख मिथ्या होता है। मनुष्य जब अपनी ही सुख सुविधा पर ध्यान देता है, तब संसार में हा-हाकार मचता है, संकट और विपदाएं आती हैं । परन्तु दूसरों को सुखी और संकट रहित बनाने का प्रयत्न करता है तब इस लोक में भी सुख शान्ति मिलती है, पारलौकिक कल्याण और पुण्य का उपार्जन होता है। ऐसा परमार्थी व्यक्ति अभाव और कष्ट की स्थिति में भी एक अपूर्व सुख, संतोष और तृप्ति का अनुभव करता है। प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् विक्टर ह्य गो ने लिखा है-परोपकार के लिए हम जितना अपने को जुटाते हैं, उतना ही हमारा हृदय विशाल होता जाता है । परमार्थजन्य पुण्य से मनुष्य की चेतना न केवल विकसित होती है, बल्कि ऊर्ध्व-मुखी भी होती है। उसका हृदय विकसित एवं महान् हो जाता है । उसे अपने में एक पूर्णता का अनुभव होने लगता है। किसी अज्ञान-ग्रस्त, अन्धविश्वास-पीड़ित, मूढ़ताओं के शिकार व्यक्ति के ज्ञानचक्षु खोल देने, रोगी, अभाव-ग्रस्त एवं पीड़ित व्यक्तियों की सेवाशुश्रूषा करने, सहायता करने, किसी का संकट कम कर देने, किसी क्षुधापीड़ित की क्षुधा निवारण करने अथवा इन सबको सन्मार्ग दर्शन कर देने से उसकी आत्मा को जो शान्ति और संतोष मिलता है, उसी का प्रतिफल परमार्थी की अन्तरात्मा को प्रभावित कर असीम तृप्ति का अनुभव करा देता है। इसीलिए सभी धर्मों ने एक स्वर से परमार्थ की महत्ता प्रतिपादित की है। परोपकार एवं परमार्थ से केवल व्यक्ति का ही नहीं, उसके निमित्त से परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व का भी कल्याण होता है । सौहार्द, सहानुभूति एवं आत्मीयता के आधार पर जिन व्यक्तियों का परमार्थी द्वारा कष्ट-निवारण किया जायेगा, संकट में जिनको सहायता दी जायेगी, उनके अन्तःकरण में भी मानवता-पूर्ण चेतना या भावना जागेगी। फिर वे स्वयं भी दूसरों की पीड़ा, दुःख एवं विपत्ति के निवारण के लिए सहानुभूतिपूर्वक जुट पड़ेंगे, परमार्थ का कार्य करने लगेंगे । उनके अन्तःकरण में भी सात्त्विक दैवी भावना उदित होगी, उनका हृदय भी विकसित एवं विशाल बनेगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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