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________________ १३६ तमसो मा ज्योतिर्गमय राष्ट्र, संघ एवं विश्व के हित में अपने आप को तथा अपने धन वैभव लज्य आदि सर्वस्व का उत्सर्ग करने में पीछे नहीं हटते थे। आदर्शों के लिए प्राण त्याग करने की उनकी इच्छा बलवती हुआ करती थी। धन, वैभव, राज्य आदि की भूख लोगों को कम हुआ करती थी। जिसे लोक-हित के लिए ऐसा उत्सर्ग करने का अवसर मिल जाता था वह अपने आपको धन्य समझता था। वह परमात्मा की महती कृपा का अनुभव करता था कि उसे ऐसा शुभ संयोग मिला। ऐसे व्यक्ति चाहते तो संसार के असंख्य भौतिक सुख और अपरिमित वैभव को बटोर कर उनका उपयोग कर सकते थे, परन्तु उन्होंने जनहित के लिए अपना सर्वस्व त्याग देना ही उचित समझा । वैदिक परम्परा के महर्षि दधीचि को जो सुख अगणित सिद्धियों के स्वामी होने से नहीं मिला, वह उन्हें जनहित के लिए आत्म बलिदान देने में प्राप्त हुआ। इसी प्रकार अनाथी मुनि, मुनि हरिकेशबल, हरिकेशी श्रमण, गौतम गणधर आदि अनेकों श्रमणों ने अपना सर्वस्व त्यागकर पीड़ित पतित और अधर्मी जनों को बोध देकर सन्मार्ग पर लगाया। क्या यह परमार्थ भावना कम थी? परमार्थ-परायणता क्यों और किसलिए? दूसरी दृष्टि से सोचें तो संसार में यदि कोई सच्चे माने में सुखी है तो वह है-आत्मतृप्त परमार्थी या वीतरागता दृष्टि-सम्पन्न परमार्थी । आज सैद्धान्तिक और आध्यात्मिक सुख की तराजू पर सारे संसार के प्राणियों को तौला जाए तो यही तथ्य प्रतीत होगा कि देवलोक के देव भले ही इन्द्रियजन्य भौतिक सुखों से सम्पन्न हों, वे सेठ और सेनापति हों, राजा-महाराजा या सत्ताधीश हों, विद्वान या व्यवसायी हों, कोई भी आत्मिक सूखों से सम्पन्न नहीं है। कई भौतिक सुख में मग्न व्यक्ति कह सकते हैं कि उन्हें संसार में सम्पत्ति, सन्तान, स्वास्थ्य, परिवार एवं समाज आदि के सारे सुख प्राप्त हैं, तब भी उनके मन में कोई अदृश्य-अज्ञान, अभाव, अतृप्ति एवं असन्तोष की आग धीमी आंच से सुलगती रहती है। अर्थात् इन सब सुखों के होने पर भी उन्हें वह सुख नहीं मिल रहा है, जो आत्मा को तृप्त और सन्तुष्ट करता है। संसार के सारे सुख इन्द्रियजन्य ही होते हैं, जो शरीर तक ही सीमित रहते हैं, इससे आत्मा की तृप्ति नहीं हो सकती । आत्मा की तृप्ति और सन्तुष्टि यथार्थ परमार्थ पूर्ण परोपकार से ही होती है। परमार्थ-निःस्वार्थ परमार्थ की साधना ही ऐसी है जिसका फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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