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परमार्थ-परायणता की कसोटी
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परमार्थ का उद्दश्य
___ इस परमार्थ-परायणता के पीछे उनका यह चिन्तन है कि यह विश्व जितना ही धर्मपरायण, सुसंस्कृत, आत्मकल्याण-परायण एवं आत्मिक सुख से युक्त होगा, उतनी ही हिंसा, असत्य, चोरी आदि बुराइयाँ संसार में कम होंगी, संसार में उतनी ही सुख-शान्ति बढ़ेगी, संसार के भव्यजन कर्मों से मुक्त होने का प्रयत्न करेंगे । दूसरी ओर संसार में जितने भी सज्जन, भव्य, परमार्थदृष्टिपरायण धर्मनिष्ठ बढ़ेंगे, उतना ही साधकों को लाभ है। उनकी रत्नत्रय की साधना निराबाध, निर्विघ्न एवं निश्चितता से होगी । तीर्थंकरों द्वारा' धर्म तोर्थ (धर्मसंघ) की स्थापना करने का भी उद्देश्य यही है। इस दृष्टि से परमार्थ एक दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का स्वार्थ =आत्मार्थ ही है। ऐसे निरवद्य परमार्थ-प्रयत्न से उन महान् आत्माओं को अनिर्वचनीय आत्मतप्ति, आत्म-तुष्टि एवं आत्म-शान्ति मिलती है, यह उच्चकोटि की उपलब्धि भी एक प्रकार से उत्कृष्ट स्वार्थ-सिद्धि है। श्रेष्ठता का मापदण्ड-परमार्थ-परायणता
एक युग था, जब श्रेष्ठता का मापदण्ड परमार्थ-परायणता को समझा जाता था। तब प्रत्येक विचारवान् व्यक्ति यह मनोरथ करता था, वह दिन धन्य होगा, जब मेरा तन, मन, वचन और सर्वस्व परार्थ=परोपकार के काम आ जाए ! मैं स्वयं आरम्भ-परिग्रह से मुक्त होकर अपना जीवन स्व-पर-कल्याण-साधना में लगाऊँ । उत्तराध्ययम सूत्र में उन परमार्थी महापुरुषों के जीवन के असाधारण गुणों की झांकी यत्र तत्र दी गयी है । उदाहरणार्थ-शान्तिनाथ भगवान् के जीवन की संक्षिप्त जीवनगाथा इस प्रकार है
"चइत्ता भारहं वासं चकवट्टी महिड्ढिओ।
संति संतिकरे लोए, पत्तो गईमणुत्तरं ॥ इसका भावार्थ यही है कि महान् ऋद्धि सम्पन्न एवं लोक में शान्ति करने वाले श्री शान्ति नाथ चक्रवर्ती ने भारतवर्ष के राज्य का त्याग कर के तीर्थंकर पद प्राप्त किया और अनेक भव्य जीवों का उद्धार करते हए अनुत्तरगति (मुक्ति) प्राप्त की।
इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि प्राचीन काल के महान् आत्मा समाज,
१ धम्म-तित्थयरे जिणे . -(लोगस्स सूत्र)
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