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१३४ तमसो मा ज्योतिर्गमय रहता है । स्वर्ग, मोक्ष या सिद्धि में से वह किसी की स्पृहा या कामना नहीं करता । एक आचार्य ने कहा है- "मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनि सत्तमः ।" वे उत्कृष्ट मुनिवर मोक्ष और स्वर्गादि भव में सर्वत्र निःस्पृह होते हैं । ऐसे आध्यात्मिक पुरुषोत्तम तीर्थंकरों की स्तुति में उनकी परमार्थ परायणता के इन्हीं गुणों को व्यक्त किया गया है
___"लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगप्पईवाणं लोगपज्मोमगराणं, अभयदयाणं चक्खुक्याणं, मग्गदवाणं सरणबयाणं जीवदयाणं बोहिबयाणं धम्मदयाणं "तिन्नाणं तारयाणं, बुराणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं ......।"२
इस शक्रप्रणिपात स्तव के अंश का भावार्थ यह है कि उन " लोक के नाथ, लोक-हितंकर, लोक के प्रदीप, लोक के प्रद्योतकर्ता, अभयदाता, चक्षुदाता, मोक्षमार्ग के दाता, शरणदाता, जीवन-दाता, बोधि-दाता, धर्म-प्रदाता, स्वयं संसार सागर को पार करने वाले तथा दूसरों को पार कराने वाले, स्वयं बोध पाने वाले और दूसरों को बोध देने वाले, स्वयं कर्मों से मुक्त होने वाले और दूसरों को मुक्त करने वाले धर्मतीर्थंकर भगवन्तों को नमस्कार हो।
सैद्धान्तिक दृष्टि से देखा जाए तो ये सारे विशेषण उनकी परमार्थपरायणता को स्पष्ट रूप से द्योतित कर रहे हैं। केवलज्ञान-केवलदर्शन हो जाने के बाद तीर्थंकरों के चार घातीकर्म तो नष्ट हो ही जाते हैं। एक प्रकार से वीतरागता-सम्पन्न एवं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी सर्वकृतकृत्य हो जाते हैं, फिर वे लोककल्याण के उपर्युक्त कार्यों में न पड़ें तो भी उनकी आत्मा की किसी प्रकार की क्षति नहीं होती। किन्तु ऐसे विश्ववत्सल' लोकहितैषी से रहा ही नहीं जाता । अनायास ही उनको प्रवृत्ति इन निरवद्य परमार्थ कायो में होती है। उन्हें जो अपूर्व अध्यात्म-सम्पदा (अनन्तज्ञानादि चतुष्टय प्राप्त हुई है, उसे लुटाने में उनका वात्सल्यपूर्ण हृदय किसी भी प्रकार से नहीं हिचकिचाता। परमार्थपरायणता उनके जीवन का स्वाभाविक धर्म बन जाता है । जिसे जैन परिभाषा में मैत्री (परहितचिन्ता) कहा गया है "मित्ती मे सव्वभूएसु" तो प्रत्येक तीर्थकर का दिव्य आघोष है । १ रत्नाकरावतारिका २ शक्रस्तव : नमोत्थुणं का पाठ । ३ 'जगवच्छलो जगप्पियामहो भगवं.... -नंदीसूत्र ४ आवश्यकसूत्र (प्रतिक्रमण-आवश्यक)
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