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________________ १२ परमार्थ-परायणता की कसौटी आध्यात्मिक प्रौढ़ता का चिह्न : परमार्थपरायणता अध्यात्म की भूमिका में जैसे-जैसे मनुष्य का विकास उच्च से उच्चतर होता जाता है, वैसे-वैसे उसका परमार्थ-पराग भी विकसित कमलपुष्प के समान दशों दिशाओं में उड़ने लगता है। वस्तुतः जव मनुष्य में आध्यात्मिक प्रौढ़ता आ जाती है, तब परमार्थ-परायणता तो उसमें स्वतः आ जाती है । उसकी उदारता, सदाशयता, करुणा, वत्सलता एवं महानता उसे एक घड़ी भर भी चैन से नहीं बैठने देती। वह प्रतिक्षण अपना सर्वस्व लुटाने के लिए व्याकुल रहती है। गाय के स्तनों में जरा भी दूध जमा होता है, तो वह रम्भाने लगती है, जब तक वह स्तनों का दूध खाली नहीं कर देती, तब तक बेचैनी अनुभव करती है । पेड़ जब परिपुष्ट हो जाते हैं, तो किसी के बिना मांगे ही अपने परिपक्व फलों को भूमि पर टपकाते रहते हैं। यही नहीं वे पत्ते, पुष्प, फल, छाया, लकड़ी एवं सुगन्ध का अनुदान भी सतत अपरिचित रूप से दूसरों को देते ही रहते हैं, बदले में वे किसी से कुछ भी नहीं माँगते । यही उनका स्वाभाविक धर्म बन जाता है। अनायास ही यह निःस्वार्थ परमार्थ कार्य उन वृक्षों द्वारा होता रहता है। वृक्षों को किसी प्रकार की प्रशंसा, प्रतिष्ठा, नामबरी, प्रशस्ति आदि की आवश्यकता नहीं रहती। वे किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखते। निष्कर्ष यह है जब मनुष्य का आध्यात्मिक विकास प्रौढ़ हो जाता है, अथवा सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाता है, तब स्वतः ही मन-वचनकाया से वह विश्व को अपना सर्वस्व देता रहता है, विश्व को अधिकाधिक सुसंस्कृत, सद्धर्म-परायण एवं सुविकसित बनाने के लिए वह अहर्निश तत्पर ( १३३ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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