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________________ १३२ तमसो मा ज्योतिर्गमय पाथेय है कि जिसके बल पर वह बड़ी से बड़ी विपत्ति और प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने स्वीकृत पथ पर डटे रह सकते हैं। साहसदेव की साधना का चतुर्थ चरण है-संकीर्ण स्वार्थों की परिधि से बाहर निकलकर परमार्थ के लिए आवश्यक त्याग-बलिदान करना, अपने साधनों तथा सुख-सुविधाओं का व्युत्सर्ग करना। यहाँ तक कि कायोत्सर्ग करने के लिए भी उद्यत रहना । यही आध्यात्मिक वीरता है। आदर्शवाद एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की लम्बी चौड़ी बातें बघारने वाले लोग नहीं, किन्तु इन्हें अपने जीवनक्रम में उतारने वाले लोग ही साहस और सत्यता के धनी हैं । संसार में शरीर, मन, बुद्धि और वाणी से शूरवीरता दिखाने वाले लोग बहुत मिलते हैं; किन्तु आध्यात्मिक वीरता दिखाने वाले विरले ही होते हैं । ऐसे लोग उदात्त, उदार एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की प्रवृत्ति वाले होते हैं। इस युग में जहाँ संकीर्ण स्वार्थपरता और यश, रूप, धन, भोग एवं पद आदि भौतिकता की पूर्ति में अधिकांश लोग संलग्न हैं, वहाँ इन्हें तिलांजलि देकर, अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग करके कष्ट सहिष्णु और उदार बनना साहसदेव की उत्कृष्ट साधना है। आज तो साधु दर्शन, पूजापाठ, क्रियाकाण्ड, तप-जप आदि के पीछे भी सुख-साधनों, धन, यश आदि के लाभ की वृत्ति प्रबल है, अरिहन्त भगवान् या अन्य देवों का पल्ला भी सांसारिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए पकड़ा जाता है। इस धारा का प्रवाह चीरते हुए विपरीत दिशा में चलना परम साहस का कार्य है। इस प्रकार साहसदेव की पूजा करने वाले व्यक्ति की आत्मिक शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं। अन्त में वह कर्मक्षय करके मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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