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________________ साहस की विजय भैरी १३१ साहसहीनता से अपना बल घटता है, सत्कार्यों में विघ्न-बाधाएं खड़ी होती हैं । साहस देव की साधना के चार चरण साहत देव की साधना के चार चरण हैं - ( १ ) शारीरिक श्रम में प्रसन्नता अनुभव करना, (२) मन की अस्त-व्यस्तता को दूर करना, (३) विपत्तियों एवं संकटों में धैर्य और सन्तुलन न खोना और (४) अपने संकीर्ण स्वार्थों की परिधि से बाहर निकल कर परमार्थ के लिए आवश्यक त्याग बलिदान करना । संक्षेप में इन चारों को क्रमशः प्रसन्नता, एकाग्रता, धीरता और व्युत्सर्गशीलता कह सकते हैं । आध्यात्मिक प्रगति एवं सफलता के लिए उत्साहपूर्ण मनोयोगपूर्वक कठोर शरीर श्रम अपनाना साहसदेव को पूजा का प्रथम चरण है । जो व्यक्ति आरामतलब, आलसी, कामचोर, मस्तीखोर, बैठे-ठाले होते हैं, वे किसी भी कार्य में साहस नहीं कर सकते । उपलब्धियां, लब्धियाँ एवं सिद्धियां उन्हीं को प्राप्त होती हैं, जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में उद्यम करते हैं । श्रमण संस्कृति को बुनियाद ही आत्मविकास के लिए श्रम करने में है । जो सतत श्रमशील, उद्यमी और उत्साही होते हैं, उनका शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। गहरी नींद और कड़ी भूख का आनन्द उन्हें ही मिलता है, जो सत्कार्य में श्रम से जी नहीं चुराते | साथ ही वे अपने स्वभाव में जिन आवश्यक कुटेवों और दुर्गुणों की घुसपैठ है उन्हें हटाकर उनके स्थान में सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों की वृद्धि करने में पूर्ण अभ्यास एवं प्रयास करते हैं । साहसदेव की पूजा का दूसरा चरण है-मन को लक्ष्य में या किसी सत्कार्य में केन्द्रित करना । अधिकांश लोग अपने मन-मस्तिष्क को अनर्गल, अस्त-व्यस्त एवं अनावश्यक विचारों में, निरर्थक चिन्तन में और असम्बद्ध कुटेवों के पोषण में लगाये रखते हैं । यदि मन-मस्तिष्क को लक्ष्य की ओर केन्द्रित करके इस कुचक्र को तोड़ने का साहस किया जाए, तथा उसे सुव्यवस्थित और सत्प्रवृत्तियों का अनुगामी बनाने में पुरुषार्थ किया जाए तो समझना चाहिए साहस देव की साधना का द्वितीय चरण पूर्ण कर लिया । साहसदेव की साधना का तृतीय चरण है- विपत्तियों और संकटों में धैर्य एवं सन्तुलन न खोना । इस विषय में पहले काफी कहा जा चुका है । संसार में मनुष्य के पास आशा, उत्साह और धैर्य का इतना शक्तिशाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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