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________________ साहस की विजय-भेरी १२६ आध्यात्मिक क्षेत्र में ही क्यों, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक, किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए साहस आवश्यक है। समाज की अव्यवस्था दूर करने, अन्धविश्वास, कुप्रथा एवं कुरूढ़ियों को मिटाने के लिए भारी साहस की आवश्यकता होती है। कई बार दूसरों की गालियाँ और विरोध सहने पड़ते हैं। कइयों का बुरा भी बनना पड़ता है। कई बार जान-माल की भारी हानि भी उठानी पड़ती है। साधारण लोग तब तक ही टिकते हैं, जब तक लोग उनके स्वर में स्वर मिलाकर गाते हैं, लेकिन ज्योंही कोई उनके समक्ष विकासघातक, दम्भवर्द्धक एवं युग बाह्य रूढ़ियों को हटाने की बात कहेंगे, त्योंही वे कतरा कर वापस भागेंगे। जरा-सी कमजोरी दिखाई दी, तो पुराने सड़े-गले कुसंस्कार और कुरूढ़ियाँ पुनः उन पर हावी हो जाएंगी। साहसी व्यक्ति किसी भी कठिन कार्य को देखकर डरते या घबराते नहीं हैं, न ही वे उस कार्य को कल पर टालते हैं। कार्य के साथ जो जिम्मेवारी और कठिनाई जुड़ी होती है उसे पूरा करने में वे घबराते या जी चुराते नहीं हैं। वे सोचते हैं कि जो काम आज हो सकता है, उसे कल पर क्यों टाला जाए? यदि समय है तो उस काम को पीछे के लिए न छोडा जाए ? कार्य एक ऐसा आत्मीय मित्र है जो प्रशंसा, सम्पत्ति, गुण-सम्पदा, सफलता, योग्यता तथा क्षमता में वृद्धि कर देता है। अतः साहसी व्यक्ति को ऐसे कार्यरूप मित्र के सम्मुख आ जाने पर उसका हार्दिक स्वागत करना चाहिए । कार्य की ऐसी शुभागमन-बेला में जो लोग उदासीनता दिखाते हैं, समझना चाहिए वे अपने समागत सौभाग्य को दुत्कार कर निकाल रहे हैं। सत्साहस और दुःसाहस ५०ा अन्तर प्रायः साहस एवं शौर्य शब्द का प्रयोग युद्धक्षेत्र में जौहर दिखाने के अर्थ में होता है, परन्तु यह साहस बहुत-सी बार राज्यलिप्सा, धनलिप्सा, पदलिप्सा या अन्य किसी प्रकार की लालसा को लेकर किया जाता है। तब वह साहस नहीं, दुःसाहस कहलाता है। जिसमें नैतिक मर्यादाओं का ध्यान न रखकर उद्दण्डता और अनैतिकता अपनाई जाती है और वह भी दुःसाहस है, जिसमें समय, साधन, भवसर एवं परिस्थिति का ध्यान न रख कर ऊटपटांग ढंग से कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है। कई बार लोग धन के लोभ में आकर तस्कर व्यापार, चोरबाजारी, भ्रष्टाचार, गबन, पराई घरोहर को उकारना मादि कार्यों के करने में आंखें मूंदकर कूद पड़ते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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