SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साहस की विजय-भेरी १२७ ने बन्द हो जाते हैं, भले ही उसके कल-पुर्जे सब प्रकार से सही हों। मशीनों के चलने में तेल या बिजली की शक्ति जो काम करती है, वही काम मानव जीवन में उत्साहपूर्वक सक्रिय होने में साहस का बल करता है। पराक्रम दृश्य रूप है और साहस उसका प्राण । प्राण के बिना शरीर की कोई उपयोगिता नहीं रहती। शरीर और मन-मस्तिष्क की कीमत चाहे जितनी बढ़ी-चढ़ी हो, साहस के अभाब में उसकी कोई उपयोगिता नहीं रहती। अन्तर में उत्साह का संचार न हो, किसी योजना को पूर्ण करने के लिए संकल्प न जगे तो शरीर और मन में कुछ करने का प्रबल साहस स्फुटित नहीं होता। साहस की चाबी से सफलता के ताले खुलते हैं भीरुता, काल्पनिक विभीषिका और आशंका का रंगीन चश्मा उतार देने से मन पर छाया हुआ डरावना रंग मिट जाता है । किन्तु यह तभी हो सकता है, जब मनुष्य के अन्दर का शौर्य बाह्य जीवन में पराक्रम बन कर प्रकट हो, तथा कठिनाइयों और प्रतिकूलताओं के साथ भिड़ जाने की खिलाड़ी जैसी उमंग मनुष्य को खतरा उठाने और अपनी विशिष्टता प्रकट करने के लिए प्रेरित करती हो । बड़े-बड़े कदम उठाने में साहसी लोगों को ही पहल करनी पड़ती है। बाद में कहीं न कहीं से सहयोग भी मिलता है, साधन भी जुटते हैं, इस प्रकार उन्हें बड़े-बड़े कार्यों में सफलता मिलती है। वास्तव में साहस की चाबी से सफलता के ताले खुलते हैं। साहस का वास्तविक स्वरूप अर्थ-समृद्ध लोगों के बीच गरीबी में मस्त रहना और सम्मानयुक्त जीवन जीना साहस है । लोगों के द्वारा विरोध करने, कीचड़ उछालने या हानि पहुँचाने पर भी किसी उत्कृष्ट लक्ष्य पर दृढ़ और स्थिर रहना साहस है। गलत परम्पराओं, अन्धविश्वासों एवं कुरूढ़ियों को न मानकर सचाई को अपनाना भी साहस है । न्याय पथ पर कायम रहना भी साहस है। गलत बात के समर्थक बहुत-से लोग हों तो भी उसे गलत कहना, सचाई को प्रगट करना भी साहस है। किसी पवित्र एवं महान कार्य में साहस करके आगे बढ़ने पर यदि मृत्यु का भी सामना करना पड़े तो सर्वोत्कृष्ट सफलता है। साहसी कौन है, कौन नहीं ? __सच्चे अर्थों में साहसी वे नहीं, जो हर घड़ी लड़ाई-झगड़ा करने पर उतारू रहते हैं और हर किसी को दबाते-सताते और पीड़ित करते रहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy