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________________ १२६ तमसो मा ज्योतिर्गमय साहस मनःस्थिति को सुदृढ़ एवं प्रतीकारक्षम बनाता है मनुष्य की शोभा इसी में है कि वह साहसपूर्वक परिस्थितियों का सामना करे, उन्हें बदलने का प्रयत्न करे और प्रशान्त एवं गम्भीर बना रहे । वास्तविक विपत्तियों का सामना साहस द्वारा ही किया जा सकता है। जो कुछ शारीरिक, प्राकृतिक, आकस्मिक, प्रियजन-वियोग-जनित अथवा दारिद्र य-निमित्तक दुःख आ पड़ते हैं, उन्हें गम्भीरतापूर्वक सहने में ही मानव की शोभा और गरिमा है । अधिकांश दुःख तो मनुष्य की अपनी मनःस्थिति पर निर्भर है । साहस ही मनःस्थिति को सुदृढ़ एवं प्रतीकारक्षम बनाता है, वही मनःस्थिति को आत्मविश्वास युक्त बनाता है। आत्महीनता को ग्रन्थि से जब सारा मनःक्षेत्र बुरी तरह जकड़ा रहता है, अपनी योग्यता, क्षमता एवं प्रखरता पर व्यक्ति को विश्वास ही नहीं होता, तब साहस ही उसका सम्बल बनता है। मनःस्थिति सुदृढ़ होने पर मनुष्य तुलनात्मक दृष्टि में सोचने लगता है कि जब गई गुजरी परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्ति उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सके तो हम वैसा क्यों नहीं कर सकते । इस प्रकार साहसी सदा बाजी मार लेता है । साहस से आत्मिक शक्ति और गुण सम्पदाएं बढ़ती हैं सन्मार्गगामी साहसी व्यक्ति को समय पर दैवी-अनुग्रह भी मिलता है । इतिहास-पुराणों में इसके अगणित उदाहरण मिलते हैं और आधुनिक युग के अनेक अध्यात्मतत्ववेत्ता साहसी पुरुषों के भी। असम्भव प्रतीत होने वाले कार्यों को करने वाले साहसी महापुरुषों को प्रायः ईश्वरीय अनुग्रह मिलता रहा है, उसी के बल पर साधनशून्य एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वे आगे बढ़ते और सफल होते देखे गये हैं। साहसी व्यक्ति को जीवन-संघर्ष से प्राप्त अनुभवों का लाभ तो मिलता ही है, उसकी आत्मिक शक्तियाँ एवं गुणसम्पदाएँ भी बढ़ती जाती हैं। उनके महान व्यक्तित्व की सम्पदा भी वृद्धिंगत होतो है, जो उसके व्यक्तित्व की सर्वप्रधान वास्तविक पूँजी है । साहसी ही सच्चे अर्थों में जीवन जी पाते हैं । साहस के बिना शारीरिक मानसिक क्षमताएं निष्क्रिय ___ शारीरिक एवं मानसिक क्षमताएँ और उपयुक्त साधन सहयोग होते हए भी मनुष्य क्यों कुछ नहीं कर पाता? इसका कारण तलाश करने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि साहस का अभाव ही शिथिलता और निष्क्रियता का प्रमुख कारण है । इंजिन में भाप या तेल न रहने पर वे चल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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