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१२४ तमसो मा ज्योतिर्गमय परिपूर्ण मानकर प्रारम्भ ही नहीं करते। कदाचित् प्रारम्भ भी कर देते हैं, तो भी विघ्नों की चोट से बीच में ही उस सत्कार्य को छोड़ बैठते हैं। मगर साहसी मनस्वी व्यक्ति बार-बार विघ्नों की चोट से आहत होकर भी प्रारम्भ किये हुए कार्य को नहीं छोड़ते, वे उसे पूरा करके ही दम लेते हैं। योगी भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचः । प्रारभ्य विघ्न-निहता विरमन्ति मध्याः। विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः ।
प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति । इसका भावार्थ ऊपर आ चुका है । वास्तव में, अधिकांश लोग किसी भी सत्कार्य, विशेषतः आध्यात्मिक विकास के कार्य की शुरुआत इसलिए नहीं करते कि उनमें आने वाले खतरों को उठाने का साहस नहीं होता। साहसहीनता से नीरस और नि:र्य जीवन
__ अधिकांश लोग बहुत कुछ पाने की बात सोचते हैं, परन्तु उसक मूल्य न चुका पाने के कारण खाली हाथ ही रहते हैं। ऐसे लोग जिस-तिर पर दोषारोपण करते हुए किसी प्रकार का आत्मसन्तोष कर लेते हैं, किन्तु उससे बनता कुछ नहीं। उल्टे वे दूसरों की भर्त्सना से अशांत और उद्विग्न रहते हैं। आध्यात्मिक उन्नति के कार्यों को करने में भी वे दूसरों की आलो चनाओं, विरोधों एवं अवरोधों से डरते हैं। लोकनिंदा एवं असफलता क भय किसी भी सत्कार्य को प्रारम्भ में ही मनुष्य को निर्वीर्य एवं निस्तेज बना देता है। लौकिक कार्यों में भी जो जातियाँ साहस पर जीती हैं, वे है सबकी अगुआ बन जाती हैं। साहस के अभाव में छोटे-छोटे दल या समू नीरस, निरानन्द, निर्वीर्य, निबल एवं हतोत्साह होकर असफलताओं से भर दीन-हीन जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे दल या समूह साहस के अभाव कायर और डरपोक हो जाते हैं । एक विचारक ने साहसहीन व्यक्ति के लि कहा है
निरुत्साहं निरानन्दं निर्वीर्यमरिनन्दनम्,
मा स्म सीमन्तिनी काचिज्जनयेत् पुत्रमीदृशम् । 'उत्साहीन, आनन्द से रहित, निर्वीर्य तथा शत्रु को प्रसन्न करने वाले ऐसे पुत्र को कोई भी महिला जन्म न दे ।'
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