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________________ १२२ तमसो मा ज्योतिर्गमय हरिश्चन्द्र राजा का राज्य, धन-धाम एवं साधनों का त्याग, मानवता की प्रति स्थापना के लिए गौतम बुद्ध का त्याग, आदि सब कार्य उत्कृष्ट साहस के परिचायक हैं । इसी प्रकार विश्व हित के लिए अपने सर्वस्व सुखों, स्वार्थी, सुख साधनों, यहाँ तक कि तन, धन, जन, परिजन, भवन, धन-धान्य, बैभव, विलास आदि का त्याग सर्वोपरि साहस का लक्षण है । वस्तुतः मनुष्य के मूल्यांकन की कसोटी 'साहस' है । इसी से उसकी महानता की प्रतीति होती है । मनुष्य के उत्कृष्ट व्यक्तित्व का नायक : साहस सेना सब प्रकार से सुसज्जित हो, किन्तु उसका नायक न हो तो वह भलीभांति नहीं लड़ सकती । ऐसी सेना को अस्त-व्यस्त होकर पराजय का मुख देखना पड़ता है । इसी प्रकार बलिष्ठ शरीर, बुद्धि, पाण्डित्य आदि सब कुछ होने पर भी जीवन - समर में यदि साहस का नेतृत्व नहीं है, तो वह पराजित और असफल हो जाता है । साहस ही मनुष्य के व्यक्तित्व का नायक है । वही उसकी समस्त शक्तियों का प्रतिनिधित्व करके उन्हें उपयुक्त स्थान पर कार्य करने में लगाता है । सद्गुणों को सामाजिक एवं आध्यात्मिक जीवन में रमाने तथा अभिव्यक्त करने के लिए तथा अपने अन्तिम लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त करने के लिए साहस की आवश्यकता होती है । परीषह सहन करने की क्षमता साहस से ही यों देखा जाए तो नरक और तिर्यञ्च गति के जीव भूख, प्यास, अपमान, सर्दी-गर्मी आदि अगणित शारीरिक कष्ट और मानसिक दुःख सहन करते हैं, परन्तु वे सहते हैं, लाचारी से, विवशता से, पराधीनता से, अज्ञान और मोह के वशीभूत होकर; यदि वे उन्हीं कष्टों को समभावपूर्वक तप एवं धर्म समझकर सहन करें तो उनका वह कष्ट सहन सकाम निर्जरा ( कर्मक्षय) की कोटि में आ सकता है। इसी प्रकार कोई भी गृहस्थ या साधु इन्हीं कष्टों को रोते-झींकते या चीखते-चिल्लाते नहीं, किन्तु वीरता - पूर्वक समभाव से तप एवं धर्म समझ कर सहते हैं, तो उनका वह कष्ट सहन - परीषह - सहन सकाम निर्जरा का कारण बनता है । परन्तु इस प्रकार से परीषह सहन करने की क्षमता साहस से आ सकती है । साहस का सम्बल न हो तो साधक बीच में ही उस कष्ट से भाग छूटेगा, अपने संयम मार्ग को छोड़कर सुख-सुविधापूर्ण पथ को स्वीकार कर लेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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