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________________ साहस की विजय-भेरी १२१ चलना-फिरना, धन कमाना, विलास के साधन जुटाना, रोग, शोक, भय, ईया, द्वष आदि के क्षण सभी के जीवन में प्रायः आते हैं। यह सामान्य जीवन क्रम है । जीवन क्रम की दूसरी दिशा असामान्य जीवन क्रम की है । वह कष्ट और कठिनाइयों की, त्याग और तप की, संयम और वैराग्य की, क्षमा और समता को दिशा है। जब मनुष्य पूर्वोक्त सामान्य जीवन क्रम को प्रधानता न देकर कष्ट और कठिनाइयों के उज्ज्वल असामान्य जीवन क्रम को अपनाता है, तब उसमें साहम की आवश्यकता होती है। साहस के बिना केवल ढर्रे का जीवन जीने वाले या कूपमण्डूक के समान पेट और प्रजनन की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति में ही सन्तुष्ट रहने वाले व्यक्ति अपने लक्ष्य-पथ में आगे नहीं बढ़ पाते । साहसहीन व्यक्ति आध्यात्मिक विकास भी नहीं कर पाते । वे असामान्य जीवन क्रम को अपनाने से डरते हैं, अनेक संशयों से हरदम घिरे रहते हैं । वस्तुतः साहस का धनी व्यक्ति अकेला ही सैकड़ों को मात दे सकता है। वह कष्टों और कठिनाइयों से, तप और त्याग से घबराता नहीं। अपनी परिस्थितियों और आलोचनाओं से घबराकर वह अपने कर्तव्य एवं दायित्व से च्युत नहीं होता । फल मिले या न मिले, वह दृढ़निश्चयपूर्वक अन्त तक अपने निर्धारित सुपथ पर डटा रहता है। वह शुभ कार्य में विफलता, विपत्ति, विघ्न-बाधा या आलोचनाओं की परवाह नहीं करता। साहसी व्यक्ति दृढ़तापूर्वक कार्य का निश्चय कर लेता है फिर अपनी समग्र शक्तियों को उसी में जुटा देता है। वह सुनिश्चित मार्ग पर पूरे आत्मबल के साथ चल पड़ता है, पीछे मुड़कर नहीं देखता कि मेरे पीछे कोई आ रहा है या नहीं ? सर्वोपरि साहस ही महान कार्य का परिचायक संसार में कुछ कार्य इतने महान एवं तप-त्यागपूर्ण होते हैं कि उसके लिए उत्कृष्ट साहस की आवश्यकता होती है। ऐसे महान कार्यों के लिए दूसरी सभी वस्तुओं का उत्सर्ग करने का साहस जुटाना पड़ता है। जैसेदेश की रक्षा के लिए कुछ लोग परिणाम की बात सोचे बिना कूद पड़ते हैं । वैज्ञानिक अपने देश की शक्ति एवं समृद्धि बढ़ाने के लिए अपने जीवन को खतरे में डाल कर महत्वपूर्ण शोध और प्रयोग करते रहते हैं । देवत्व के लिए महर्षि दधीचि का अस्थिदान, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए महात्मा गाँधीजी आदि महान आत्माओं का बलिदान, सत्य के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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