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आत्मभावना के मूलमन्त्र ११६ वह परिवार या संघ के साथ रहता हुआ भी इनसे अलिप्त, मोहरहित एवं अनासक्त तथा निःस्पृह रहेगा। फिर उसे अपनी प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, भक्तों एवं दर्शनार्थियों की भीड़ आदि से प्रायः विरक्ति हो जाएगी। उसके जीवन में आत्मकल्याण की निश्चयात्मक दृष्टि ही प्रधानता ले लेगी। इस प्रकार की आत्मभावना से अन्तःकरण को भावित करने से साधक केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। कहा भी है
आत्मभावना भावता जीव लहे केवलज्ञान रे। भगवती सूत्र आदि आगमों में आत्मार्थी साधकों का जहाँ-जहाँ वर्णन आता है, वहाँ उनके लिए कहा गया है
'संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।' 'वह संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विहरण करने लगा।'
शास्त्रों में आत्मभावनानिष्ठ साधक को 'भावितात्मा' कहा गया है। इससे भी आत्मभाव की महत्ता एवं गरिमा का बोध होता है।
___आत्मभावना से रहित व्यक्ति बहिरात्मा बनकर बाह्य भावों का चिंतन करता रहता है । सांसारिक विषयों का चिंतन उसकी शारीरिक और बौद्धिक क्षमता को घटा देता है । विषयों के त्याग का ज्योंही विचार किया जाता है, त्योंही वे उसे अधिकाधिक अपनी ओर खींचते हैं। फिर उसका नैतिक पतन, मानसिक खेद होता है, चिंतन शक्ति नष्ट हो जाती है। अतः गृहस्थ वर्ग और सावर्ग सभी के लिए आत्मभावना ही सब दृष्टियों से श्रेयस्कर है । वही मुक्ति के लक्ष्य को प्राप्त कराती है ।
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