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११८ तमसो मा ज्योतिर्गमय
बहिवा, सन्त्यपरे समस्ताः।
न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः॥"] ‘एकमात्र मेरो आत्मा सदा शाश्वत है, निर्मल है और ज्ञानस्वरूप है शेष सभी शरीरादि पदार्थ बहिर्भाव-परभाव हैं, शाश्वत नहीं हैं, कर्ममल से जनित हैं, जिन्हें स्वकीय मान रखा है।'
जिस प्रकार तलवार और म्यान दोनों पृथक्-पृथक् हैं । म्यान केवल तलवार की सुरक्षा के लिए है, वैसे ही आत्मा और शरीर दोनों पृथक्-पृथक् हैं। दोनों का स्वभाव भी अलग-अलग है। अतः आत्मभाव के साधक को चाहिए कि वह निर्दोष अनन्त शक्तिमान आत्मा को प्रत्येक प्रवृत्ति में शरीर से भिन्न समझे। आत्मा को ही मुख्य रखकर प्रवृत्ति करे। आत्मा को शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि का गुलाम न बनाकर इन्हें अपनी सेवा में लगाए, ज्ञानादि की साधना में सहायक बनाए । आत्मभाव का साधक मन को बुली छूट और स्वच्छन्दता नहीं देता। जब भी मन उच्छखल और विषयों की ओर आसक्त होने लगे तभी तुरन्त उसे आत्मचिंतन की ओर मोड़ देता है। विषय-कषायादि या रागद्वष-मोह, काम आदि परभावों की ओर जाते हुए मन को शीघ्र ही स्वभाव में, आत्मगुणों में, आत्मसेवा में प्रवृत्त कर देता है । बुराइयों एवं दुगुणों के प्रति विरक्ति भावना एवं त्यागवृत्ति अपनाता है । मन का यह स्वभाव है कि उसे आत्मगुणों एवं आत्मभावों में लगाने का बार-बार अभ्यास करा देने से वह आत्मा की आज्ञा का पालन करने लगता है । आत्मभाव के इस प्रकार के अभ्यास में इन्द्रियाँ और बुद्धि बाधक नहीं बन सकेंगी, क्योंकि आत्मभाव का साधक बार-बार आत्मभाव का मनन करेगा तो उसकी अन्तर्मुखी दृष्टि जागृत हो जाएगी। उसे बाहर के संसार में, परिवार, देह, गेह, धन आदि में कोई आसक्ति नहीं रहेगी। वह यही चिंतन करेगा
यस्यास्ति नैक्यं वपुषाऽपि साधं, तस्यास्ति किं पुत्र-कलत्र-मित्र। पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपाः, कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ?
जिस आत्मा का शरीर के साथ भी एकत्व नहीं है, उसका पुत्र, स्त्री या मित्र आदि के साथ एकत्व कैसे हो सकता है ? चमड़ी से रोमकुपों को पृथक् करने पर वे पुनः शरीर के मध्य कहाँ रहते हैं ? १ अमितगतिसूरिरचित सामायिक पाठ । २ अमितगतिसूरिरचित सामायिक पाठ ।
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