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________________ आत्म-भावना के मूलमन्त्र ११७ वस्तुतः किसी को दुःख न मिले, त्रास न दें, सबके साथ मधुरता और आत्मीयता का व्यवहार ही परमात्मा की सेवा-पूजा है। आत्मभावना को अधूरी न समझो यद्यपि बाघ, सिंह, अजगर आदि में भी वही आत्मा विद्यमान है, जो मनुष्य में है, किन्तु उनके क्र र स्वभाव को देखते हुए सामान्य आदमी आत्मतुल्य भाव रखते हुए भी उनके साथ अपने समान व्यवहार नहीं कर सकता, किन्तु इससे आत्मभावना को अपूर्ण नहीं समझना चाहिए। संसार में ऐसे व्यक्तियों के आज भी प्रत्यक्ष उदाहरण मौजूद हैं, जिन्होंने सिंहों, चीतों, सांपों और हाथियों आदि का भी अपनी आत्मीय भावना से क र स्वभाव बदल दिया। अतः आत्म-भावना अव्यवहार्य नहीं, व्यवहार्य है। जो व्यक्ति आत्मभावना के अनुरूप पूर्णतया व्यवहार नहीं कर सकते, उन्हें भी आत्मभावना का लाभ मिलेगा ही। आत्म-भावना मनुष्य को सन्मार्गगामी बनाती है, उसे कोई भी दुष्कर्म करने से रोकती है और उसकी आन्तरिक शक्तियों को विकसित कर पारमाथिक लक्ष्य की ओर अग्रसर करती है। आत्मभावना की भावनात्मक प्रक्रिया अन्तर्मुखी-आत्मलक्ष्यी होना है। इसे क्रिया द्वारा तभी व्यक्त किया जा सकता है, जब वैसे उत्कृष्ट आत्मभाव पहले से अन्तस्तल में जमे हुए हों। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का कहना था कि अद्वैत(आत्मैकत्व) दृष्टि भाव में है, क्रिया में नहीं। किन्तु भाव में होने पर वह क्रिया में आ सकती है। तात्त्विक दृष्टि से गाय और बाघ दोनों में आत्मा समान है। किन्तु आत्मभावना न होने से बाघ गाय को खा जाता है। इसी प्रकार जिस मनुष्य में आत्मावत (आत्मैकत्व) की भावना नहीं आती, उसके द्वारा समय-समय पर मानसिक हिंसा होती रहती है, जिसका फल उसे कायिक हिंसा से भी बढ़कर भोगना पड़ता है। किन्तु आत्मभावनाशील व्यक्ति के आत्मभाव के चिन्तन से उसकी मानसिक चिन्ताएं नष्ट हो जाती हैं। आत्मभाव की साधना में जागरूकता आत्मभाव की साधना करने वाले व्यक्ति को देह और देह से संबंधित सजीव एवं निर्जीव पदार्थों को परभाव एव नाशवान समझ कर उनके प्रति आसक्ति, ममता या तृष्णा नहीं रखनी चाहिए । बल्कि भेदविज्ञान की दृष्टि से ऐसा विचार करना चाहिए "एकः सदा शाश्वतिको ममाऽस्मा । विनिर्मलः साधिगमस्वभावः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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