________________
११६ तमसो मा ज्योतिर्गमय कष्ट देता है। आत्म-भावना से हीन व्यक्ति ही अन्तरात्मा की आवाज क गला मसोस कर पापकर्मों में प्रवृत्त होते हैं और पूर्वोक्त प्रकार से दुःखं होते रहते हैं। आत्मभावना का महत्वपूर्ण पहलू
आत्मभावनाशील व्यक्ति 'आत्मवत् सर्वभूतेष' की भावना से ओत प्रोत होता है। उसका सदा यह चिन्तन रहता है कि जैसी तेरे में आत्म विद्यमान है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों में है । जैसे तू सुख चाहता है, दुःख पसन्द नहीं करता, वैसे ही दूसरे प्राणी भी सुख चाहते हैं, दुःख सबक अप्रिय है । सभी को अपनी जिंदगी प्रिय है, कोई भी नहीं चाहता कि मेर जिंदगी नष्ट हो जाए। अतः किसी के प्राणों को नष्ट करने का मतलब है अपने ही प्राणों को खतरा पहुँचाना; क्योंकि उसके फलस्वरूप घोर कर्मबन्द होने से उसका दुःखद प्रतिफल भो भोगना पड़ता है । अतः आत्मभावनाशील व्यक्ति अपनी आत्मा के समान सभी की आत्मा को मानता है। जो समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य दृष्टि से देखता है, उसके मन में किसी भी जीत जन्त के प्रति दूर्भाव नहीं पैदा होता, बल्कि नीच योनि वाले जीव-जन्तु को देखकर उसके मन में करुणा पंदा होती है कि ये बेचारे अपने पूर्व कर्म वश नीची योनियों में पैदा हुए हैं। सभी प्राणियों में वही शुद्ध आत्मापरमात्मा विराजमान है, केवल ऊपर का कर्मों का आवरण न्यूना धिक होने से इनकी ऐसी आस्था है। यही कारण है कि भगवान महावी ने चण्डकौशिक सर्प को भी पूर्वजन्म के साधु की आत्मा के दर्शन कराये थे नरसिंह मेहता ने एक कुत्ते में भगवान का रूप देखा था, और उसे अपने जैसी घी से चुपड़ी हुई रोटी देने के लिए उसके पीछे दूर तक दौड़े थे । सन्त एकनाथ ने भगवान को चढ़ाने के लिए कावड़ में लिया जल मार्ग में है प्यासे गधे में भगवद्रप मान कर उसे पिला दिया था। रमण महर्षि जिर पर्वत की गुफा में रहते थे, वहाँ अनेक सांप भी रहते थे। परन्तु उन्होंने सांपों में भी अपने समान विराजमान आत्मा देखी, किसी को भी छेड़ नहीं। इसलिए किसी भी सांप ने उन्हें भी कुछ नहीं कहा। अतः आत्म भावनाशील मानवों की अन्तःप्रार्थना है
"सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्व सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद दुःखभाग भवेत् ॥"
"सभी सुखी हों, सभी निरोग हों, सभी कल्याण का मार्ग देखें, को · भी दुःख का भागी न हो।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org