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आत्म-भावना के मूलमन्त्र ११५ भी प्रवृत्त होने लगता है तो उसकी अन्तरात्मा पुकारती है-'यह बुरा काम है, मत करो इसे । इसके करने से दुःख है। पापकर्म का आदि, अन्त और वर्तमान सदा ही दुःखकर है ।'
सचमुच अन्तःकरण में पापकर्म के संकल्प का उदय होते ही आत्मा में बेचैनी पैदा होने लगती है । मनुष्य की अन्तरात्मा बार-बार पुकार करती है कि तेरा यह सकल्प, यह विचार या यह भाव उचित नहीं, इनकी पूर्ति तेरे लिए दुःखद एवं अकल्याणकर परिस्थितियाँ उत्पन्न करेंगी। पापकर्म के समय मनुष्य की आत्मा का यह अन्तर्द्वन्द्व बड़ा दुःखद, कष्टकर और मानसिक संक्लेश करने वाला होता है । उसका विवेक उसे बार-बार धिक्कारता और भर्त्सना करता है । ऐसे में मनुष्य सुख-चैन की नींद खो देता है।
यह तो हुई अन्तर्द्वन्द्व की बात । अन्तरात्मा की आवाज को दबाकर प्रत्यक्ष रूप में पापकर्म में प्रवृत्त होने वाले को बाह्य दुःख भी कम नहीं भोगना पड़ता। उसे समाज से छिपाने, एक झूठ के लिए अनेक झूठ गढ़ने, राजदण्ड से डरने, अपयश, अपवाद और कलंक से बचने के लिए प्रयत्न करने में उसे कितना कष्ट होता होगा? इसका अनुमान उसकी उस समय की मनःस्थिति और परिस्थिति से लगाया जा सकता है। पापकर्म जब खुल जाते हैं, तब कोर्ट, पुलिस, जेल आदि की सजाएँ भुगतनी पड़ती हैं। लोकापवाद और लांछन की आग में जलना पड़ता है। कई बार तो बेईमानी की कमाई घर की श्रम से उपार्जित सारी पूँजी को भी ले डूबती है, और दरिद्र बना देती है। बेईमानी से धन कमाने तथा साधन-सम्पत्ति संचित करने वाले किसी भी व्यक्ति को सुखचैन की श्वास लेते नहीं देखा। और न ही किसी चोर, डाकू या लुटेरे को अपहरण की हई वस्तु को निश्चित होकर भोगते देखा है । चोरी-डकैती का माल उसकी छाती पर बैठे सर्प की तरह उसे हरदम डराता रहता है। बाहर से साहूकार बन कर भी बेईमानी, तस्करी और कालाबाजारी से धन कमाने वाले की सारी वृत्तियाँ चोर जैसी ही निकृष्ट एवं निम्न कोटि की हो जाती हैं । ऐसी स्थिति में कौन-सी दुर्दशा नहीं होती । अतः आत्मा की आवाज को दबाकर अजित धन, साधन, वैभव और ऐश्वर्य से सुख-शान्ति, प्रसन्नता या प्रफुल्लता नहीं देती। इनका होना, न होने के समान है। पाप अपने स्वभावानुसार पापी अन्तरात्मा को कचोटता रहता है। वह अपने आश्रयदाता को इस जन्म में तो खाता ही रहता है, जन्म-जन्मान्तरों में भी पीछे लगकर परलोक को बिगाड़ता है, वहाँ भी
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