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११४ तमसो मा ज्योतिर्गमय
दुर्लभ मानवजन्म पाना, न पाना एक समान है। यह मनुष्य को बुद्धि का दिवाला ही समझा जाएगा कि वह अपनी लक्ष्य प्राप्ति के मूल उद्देश्य को भूल कर अन्यत्र भटक गया है ।
वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य अपने सौभाग्य- दुर्भाग्य एवं सुखदुःख का निर्माता स्वयं ही है, उसका श्रेय या दोष दूसरों को देना यथार्थ नहीं है । पूर्वजन्म में या इस जन्म में भी पहले अज्ञान, राग-द्वेष या मोह के वश जीव जो अशुभ कर्म करता है, उसी का फल उदय में आता है, तब दुःख प्राप्त होता है । जिसने पहले शुभ कर्म किये होते हैं, उसका फलभोग सुख-सौभाग्य के रूप में सामने आता है, इसके विपरीत जिसने पहले दुष्कर्मों-पापकर्मों की गठरी बांधी, उसका फलभोग दुःख दौर्भाग्य के रूप में प्रत्यक्ष होता है । अतः दुःख या विपत्ति आदि दुर्भाग्यों का कारण कोई बाहरी व्यक्ति, परिस्थिति, काल, देश, ग्रह-नक्षत्र, देव-दानव या भगवान नहीं होता । उसके कारण मनुष्य के अपने ही स्वकृत कर्म होते हैं । आत्मभावना से हीन मनुष्य इस सत्य को नहीं जान पाता, अथवा जानकर भी उपेक्षा करता है, जबकि आत्मभावनापरायण व्यक्ति इस सत्य को श्रद्धापूर्व स्वीकार करके हृदयंगम कर लेता है, इसी कारण वह अपने आचारविचार, व्यवहार, आहार-विहार आदि सभी मानसिक - वाचिक - कायिक प्रवृत्तियों (व्यापारों) पर विचार करता है । वह प्रत्येक कार्य सावधानीपूर्वक करता है, प्रत्येक कदम फूंक-फूंक कर रखता है । वह अपने अन्दर अपनी कमियों, त्रुटियों और भूलों को खोज सकता है और यदि उनमें से कोई है तो उन्हें सुधार सकता है । अपना दोष दूसरे के सिर पर मढ़ने से, अपना उत्तरदायित्व दूसरों के कन्धों पर डाल देने से मनुष्य की दृष्टि अपनी ओर जाती ही नहीं । फलतः ऐसा आत्मभावहीन मानव न तो आत्म-सुधार में तत्पर होता है और न अपने दुष्कर्मों का फल समभावपूर्वक भोग सकता है । यह तो उसी तरह है, जैसे किसी उद्दण्ड लड़के ने अपने असंयम और कुकर्मों से अपने लिए दुःखद स्थिति उत्पन्न कर ली, किन्तु दोष देता है अपने पिता को । कोई भी समझदार पिता अपने पुत्र का अहित नहीं चाहता | क्या पिता यह चाहेगा कि मेरा पुत्र दुःख पाए, रुग्ण हो या संकट में पड़े ?
आत्मा की आवाज को मानना भी आत्म भावना है
आत्मभावनाशील पहले तो पापकर्म में प्रवृत्त ही नहीं होता । जब
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