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आत्म-भावना के मूलमन्त्र ११३ आत्मा ही अपने सुखों और दुःखों का कर्ता है। आत्मा अपने आत्मभाव में सुप्रतिष्ठित होता है, तब वह अपना मित्र होता है और आत्मभाव से हटकर परभावों में दुष्प्रतिष्ठित होता है, तब वह अपना शत्रु बन जाता है। ___ 'छान्दोग्य उपनिषद्' में शास्त्रकार ने एक कथोपकथन प्रस्तुत किया है । 'श्वेतकेतु' के पिता उसे समझाते हुए कहते हैं
__ “य इह कपूयचरणा अभ्याशो यत्ते कपूययोनिमापद्यच्छू योनि वा शूकरयोनि वा चाण्डालयोनि वा।"
जो अधम कृत्य और दुष्ट आचरण वाले होते हैं, वे अधम योनि प्राप्त करते हैं, वे या तो कुत्ते और सूअर की योनि प्राप्त करते हैं, या फिर चाण्डाल योनि । सष्टि का जीव-शिरोमणि मानव भी आत्म-भावनाहीन
इस सृष्टि में मानव के अतिरिक्त अनेकों जीव हैं। जिनमें शेर, हाथी, भालु, मोर, कौआ, तीतर, सर्प, मछली, कुत्ते आदि बड़े-बड़े पंचेन्द्रिय जीव भी हैं । इनमें से शक्ति में शेर, हाथी आदि मनुष्य से बड़े हैं । कई सौन्दर्य में और कई घ्राणशक्ति में और कई स्वर में मनुष्य से बढ़कर हैं। किन्तु यह सब होते हुए भी दूसरे प्राणियों में मनुष्य के समान स्व-पर-हितचिन्तन एवं स्व-पर-कल्याण का चिन्तन करने की शक्ति नहीं है । यद्यपि उन जीवों में आहार, भय, परिग्रह और मैथुन की संज्ञा विद्यमान है, जो कि मनुष्य में भी है, तथापि कतिपय मनुष्यों में इन चारों संज्ञाओं को अल्प करने, मर्यादित करने और सर्वथा त्याग करने की क्षमता भी निहित है; मनुष्येतर पंचेन्द्रिय प्राणियों में आत्मभावना प्रायः नहींवत् होती है, जबकि मनुष्य अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार चाहे तो 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' आत्मौपम्य एवं आत्मकल्याण की भावना कर सकता है। मनुष्य में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की स्वाभाविक शक्तियाँ विद्यमान हैं; जो कि आत्मभावना से ही प्रादुर्भूत होती हैं। इसके अतिरिक्त मनुष्य में सेवा, परोपकार, क्षमा, दया, करुणा, सत्य, अहिंसा, त्याग, ब्रह्मचर्य आदि की भी महान शक्तियाँ छिपी हई हैं। इतनी अत्यधिक शक्तियाँ होते हुए भी यदि मनुष्य आत्मकल्याण के लिए इनका सदुपयोग न करे और अन्य जीवों की तरह आहारादि संज्ञाओं में ही प्रवृत्त रहे, अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए दूसरे प्राणियों को सताने व पीड़ा देने में ही रचा-पचा रहे तो उसका सुर
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