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११२ तमसो मा ज्योतिर्गमय
यह स्पष्ट है कि अधिकांश मानव तुच्छ स्वार्थ और प्रगाढ़ लोभ के वश दुष्कर्म करते हैं, वे दूसरे प्राणियों के जीने-मरने, सुख पाने, न पाने का जरा भी विचार नहीं करते । इसीलिए उनकी दुर्गति होती है।
लक्ष्य-पथ से भूले-भटके ये मानव आत्मभावना से कोसों दूर हैं । ये केवल शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के भौतिक जगत के लालन-पालन और इन्हीं से प्राप्त क्षणिक वैषयिक सुख में व्यस्त रहते हैं। आत्मभावना न होने के कारण ही ऐसे लोग दूसरे मानवों तथा अन्य प्राणियों की जिन्दगी को कुचलने, पीड़ित करने और उनकी जिन्दगी से खिलवाड़ करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते । आत्मभावनाशील मानव का चिन्तन
आत्मभावना वाला मानव, अपने अच्छे-बुरे कर्मों का उत्तरदायी स्वयं को मानता है। इसलिए वह दूसरे मानवों या अन्य प्राणियों के साथ व्यवहार करते समय विचार करता है, अगर मैं दूसरे जीवों या अन्य मानवों के साथ क्रूर या दुष्ट व्यवहार करूंगा तो उस दुष्कर्म का फल मुझे ही भोगना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त वह यह भी सोचता है कि जितनाजितना मैं आत्मा के निजी गुणों को या आत्मभावों को छोड़कर परभावों में अर्थात् राग, द्वेष, मोह, कषाय, काम आदि में या शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों में आसक्तिभाव रखूगा, उतने-उतने दुष्कर्मबन्ध होंगे और उनके कटुफल मुझे अकेले को ही भोगने पड़ेंगे।
इससे ऊपर उठकर आत्मभावनापरायण व्यक्ति का यह चिन्तन भी सुदृढ़ होता है कि अपने सुख-दुःख, सौभाग्य दुर्भाग्य, अच्छी-बुरी स्थिति, अच्छे-बुरे परिवार, अच्छे-बुरे कुल, अच्छे-बुरे संयोग, लाभ-अलाभ आदि का उत्तरदायी भी वह स्वयं है, उसके द्वारा ही पूर्वकृत कर्मों के फल हैं। जब भी आकस्मिक संकट, दुःख, विपत्ति या कष्ट आ पड़ते हैं तो वह परमात्मा, देव, काल, देश या किसी व्यक्ति आदि निमित्त को नहीं कोसता, वह अपने उपादान को ढूँढ़ता है और अपनी आत्मा द्वारा किये हुए कर्मों का फल मानकर समभाव से सहता है ।
उत्तराध्ययन सूत्र में इसी तथ्य को स्पष्ट रूप से उजागर किया गया है
"अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टियो सुप्पछिओ ॥
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उत्तरा. अ. २०, गा. ३७
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