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________________ आत्म-भावना के मूलमन्त्र १११ जहाँ सूर्य का प्रकाशन ही है वे असूर्य नामक लोक हैं, जो अन्धतमस से आवृत हैं, वहीं मर कर वे लोग जाते हैं, जो आत्मघातक हैं। वास्तव में, ऐसे व्यक्तियों का इहलौकिक जीवन भी नारकीय ही है, सभी उनकी भर्त्सना करते हैं। फिर भी लोकनिन्दा और घृणा के पात्र बनकर वे समाज में दयनीय जीवन जीते हैं। दूसरों को कष्ट और क्लेश पहुँचा कर अपनी सुखशान्ति की उनकी कल्पना दुष्कल्पना है । उनका सुख का मनोरथ बहुधा मरुभूमि में मृगमरीचिका के समान आपातरमणीय लगता है। मगर उन्हें ऐसे दुष्कर्म करने में स्वयं को दुःख, भय, शारीरिक कष्ट, आतंक, राजदण्ड एवं क्लेश की जिन्दगी बितानी पड़ती है। उन्हें अपराधी मनोवृत्ति के कारण रात-दिन अपना मुँह छिपाना पड़ता है । चारों ओर भय, आशंका और यातना से वे घिरे रहते हैं। उनके सिर पर पापों का एक भारीभरकम गट्टर सवार हो जाता है। उसका दण्ड उन्हें प्रायः इस लोक में भी मिल जाता है और परलोक में तो उन्हें नरक गति और अधमयोनि प्राप्त होती ही है । उत्तराध्ययन सूत्र भी इसी तथ्य का समर्थन करता है- "तओ आउपरिक्खीणे, चुयदेहा विहिंसगा। आसूरियं दिसंबाला, गच्छति अवसा तमं ॥१ इतने सब पापकर्म करने के पश्चात् पाप कर्मों से भारी वे हिंसक एवं अज्ञानी प्राणी आयुष्य के क्षीण हो जाने पर शरीर छूटते ही विवश होकर अन्धतमस नामक आसुरी (असूर्य) नरकगति में जाते हैं । निष्कर्ष यह है, ऐसे अनात्म भावनाग्रस्त लोगों का न तो जीवन ही सुखकर होता है, न मृत्यु ही सुखद होती है, परलोक में भी उनका जीवन भयंकर वेदनाओं से ग्रस्त होता है। उत्तराध्ययन सूत्र इस बात का साक्षी है-- "सुया मे नरए ठाणा, असीलाणं च जा गई। बालाणं कूर कम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा ॥२ .. 'जो अज्ञानी और क्रूरकर्मा हैं, उन कुशीलों का स्थान मैंने नरक में सुना है, जो कि उनकी गति है, जहाँ उन्हें प्रगाढ़ वेदना-यातना मिलती है। १ उत्तरा० अ० ७ गा० १० २ उत्तरा० अ० ५ गा०१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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