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________________ १० आत्म-भावना के मूलमन्त्र अनात्म भावों में मग्न व्यक्ति संसार में सभी प्राणी सुख और शान्ति चाहते हैं, सभी आनन्द की खोज में अनवरत लगे रहते हैं, किन्तु सभी का सुख समान नहीं है और न ही सभी के सुख की कल्पना समान है । दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति विषय-सुख के लिए लालायित रहते हैं और उसी में आकण्ठ डूबे रहते हैं । उन्हें भविष्य की कोई चिन्ता नहीं रहती । इसके लिए वे मार-काट, चोरी, डकैती, ठगी, हत्या, आगजनी, बलात्कार झूठ फरेब आदि किसी भी पापकर्म को करने से नहीं चूकते। दूसरे के हित की, परमार्थ की या परकल्याण की बात उनकी कल्पना में आती ही नहीं । वे एक प्रकार से जाति, कुल, बल, लाभ, ऐश्वर्य आदि मदों में उन्मत्त होकर मनमानी चेष्टा करते हैं । धर्म कर्म की कोई भी बात उन्हें नहीं सुहाती । आत्महित या आत्मकल्याण की बात वे सुनना तक नहीं चाहते । वे इन्द्रियों के गुलाम, अज्ञानी मूढ़ मानव भोगों के लिए ही जीते हैं और पूर्वकृत पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त क्षुद्र भोगों में ही रचे-पचे रहते हैं । अन्त में, वे उसी में रोते-झींकते पच-पच कर स्वाहा हो जाते हैं । यह स्थिति उन मनुष्यों की है, जो आत्म-भावना से बिलकुल दूर हैं । जो अनात्मभावों में आकण्ठ मग्न हैं, दूसरे प्राणियों के जीवन का कोई मूल्य वे नहीं आँकते । अपने ही क्षुद्र स्वार्थ और उसकी पूर्ति में अहर्निश लगे रहने वाले आसुरी लोगों की यह स्थिति है । ऐसे व्यक्तियों को उपनिषद्कार आत्मघाती ओर अन्धतमस नरकगामी कहते हैं 'असूर्या नाम ते लोका, अन्धेन तमसावृताः । तांस्ते प्रेत्यभिगच्छन्ति, ये के चात्महनो जनाः || १ ईशावास्योपनिषद् | Jain Education International ( ११० ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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