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आत्मनिर्माण का सर्वतोभद्र उपाय : स्वाध्याय
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अनुप्रेक्षा - स्वाध्याय की हुई वस्तु पर चिन्तन-मनन और आत्मसमीक्षण - अनुप्रेक्षण करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षण से दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं - ( १ ) आत्मसमीक्षा और ( २ ) आत्मशोधन । आत्म-समीक्षा में निष्पक्ष भाव से आत्मा में निहित गुणावगुणों एव शास्त्रविहित या साहित्यक्त आत्मा के निजी गुणों का तुलनात्मक विचार किया जाता है । आत्मशोधन में आत्मा के विषय में निष्पक्ष भाव से आलोचना, निन्दना ( पश्चात्ताप), गर्हणा ( समाज या गुरु के समक्ष दोषों का प्रकटीकरण), क्षमापना प्रायश्चित्त ( तप) तथा क्षतिपूर्ति एवं प्रत्याख्यान (त्याग) किया जाता है। इस प्रकार पूर्वकृत दुष्कर्मों की निर्जरा ( आत्मशुद्धि) की जाती है ।
धर्मकथा - जो लोग स्वयं पढ़ नहीं सकते या पठित वस्तु में से निष्कर्ष या उपादेय विवेक नहीं कर सकते, ऐसे लोगों के लिए धर्मकथा, प्रवचन श्रवण एवं सत्संग का प्रचलन इसी उद्देश्य से हुआ है । उसमें भी चारों प्रकार की विकथा से बचकर आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेगिनी, निर्वेदनी, इन चार सुकथाओं का श्रवण-कथन करना चाहिए ।
स्वाध्याय के इन पाँचों अंगों से विकृतियों और दुष्प्रवृत्तियों का परिमार्जन करके मानसिक चेतना को उत्कृष्ट वातावरण प्रदान करना चाहिए ।
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